घनश्याम आओ तुम उपवन में
तुम बिन व्याकुल मैं कानन मैंतुमको विलोकती यह अँखियाँ
तुम छुपे कहाँ घनश्याम मोरे
मुरझाए रहीं उर की कलियाँ
रूठे जब से घनश्याम मेरेप्यासी अँखियाँ है ढूँढ रही
तुमको गिरि सागर औ वन में
जब पुरवाई चलती चंचल
पुलकित हो डोलत अंग मोरेअब तक न आए तुम उपवन में
मत देर करो मत सोच करो
कैसे उर कुसुम खिलें मेरे
आओ घनश्याम मेरे मन मेंमैं धरती से आँक रही
तुम नभ से देख नहीं पाते
कौ ताप विरह व्याकुलता में
तुम क्षण भर सोच नहीं पातेतुम घिर-घिर कर किसको ढूँढो
बरसों घनश्याम इसी वन में
सरिता की सूनी माँग भरो
भर दो हास्य ज़रा वन में ।
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