आषाढ़ की संख्या घनी हो
बादल पर बादल छाने है
चारों ओर अंधकार है
मेघ बरसते ,सन -सन करती हना चल रही
झर-झर करती बरस रही हैं
बंधहीन वर्षा की जलधारा
देख रहा हूँ विरह तुम्हारा कण-कण में
सुन रहा हूँ काँपते पत्तों का संगीत
सावन भादों की जलधारा में
अन्त:करण में कैसा कोलाहल है
बादलों की वीणा पर बिजली
कर रही बार-बार प्रहार
मन ह्रदय संग उड़ा जा रहा बादलों के संग
यह नहीं मानता मेरी बात
दूर घाट पर बैठा अजनबी
बंसी मधुर बदा रहा है
सुख-दुख के अनेक रूपों में
गीत स्वरों में विरह तुम्हारा
पिघल-पिघल कर बह रहा है
पुकार रहा है स्वर तुम्हारा मुझको
अब अपनी गागर भरने मुझको भी
यमुना घाट पर जाना है।