अगली सुबह, मुंबई की चाय ठेले की गरमाहट जितिन के थके हुए जिस्म में नई जान डाल रही थी। कल रात पुल के नीचे का नाटक इतना रोमांचक था कि वो अभी तक उसकी सपनों में घूम रहा था। श्वेता के साथ उसकी बाइक राइड और उसके लफ्जों में छिपी नकली इज्जत, उसकी थकान को कुछ समय के लिए भूलने का इंतजाम कर चुकी थी।
लेकिन जैसे ही वो दफ्तर पहुंचा, उसकी बेस्टी सूनिता ने उसकी हवाइयां उड़ा दीं। "अरे वाह रौब दिखाता होगा रातभर पुल के नीचे खड़ा होकर! बता तो कल तेरी रंडीगिरी कैसी रही?" सूनिता की हंसी के झोंके हवा में घुलते चले गए।
जितिन हक्का-बक्का रह गया। उसने सोचा था कि ये बात उसके और श्वेता के बीच ही रहेगी, लेकिन छोटे शहरों की गपशप की गूंज तो तूफान से कम कहां होती है। उसने सूनिता को कल रात का पूरा वाकया सुनाया, यह उम्मीद करते हुए कि वो उसे समझ पाएगी।
सूनिता कुछ देर चुप रही, फिर अचानक हंस पड़ी। "अजीब है यार, तेरा ये खेल! लेकिन मजा तो आया ना सुनकर।"
जितिन घबराया। "सुनिता, तू ये हल्के में मत ले। ये मेरी लाचारगी थी, कोई खेल नहीं..."
लेकिन सूनिता ने उसकी बात काट दी। "लाचारगी या मजबूरी, वो बाद की बात है। अभी देख, इस खेल को हम एक नए अंदाज में आज रात खेलते हैं।"
जितिन का मुंह खुला रह गया। क्या मतलब? आज फिर से उसे धंधेवाली बनकर हाईवे या पुल के नीचे खड़ा होना था? वो थक चुका था, वो डर चुका था, वो चाहता था कि ये कलंक भरी रात उसकी जिंदगी के पन्नों से मिट जाए।
लेकिन सूनिता की आंखों में एक ऐसी चमक थी, जिसने जितिन की हिम्मत बांध दी। शायद ये कलंक को मिटाने का ही रास्ता था। शायद यही इस सवाल का जवाब था - इस खेल में आखिरकार किसकी हार हुई थी और किसकी जीत?
शाम के झुटपुटे अंधेरे में मुंबई की सड़कों पर तीन शख्सियतें एक मकसद के साथ चल रही थीं। जितिन, श्वेता और सूनिता। दफ्तर के बाद सूनिता सीधे जितिन के घर चली गई थी। वहां पहले से ही श्वेता उनका इंतज़ार कर रही थी। दोनों महिलाओं ने गर्मजोशी से एक-दूसरे को गले लगाया, उनकी आंखों में एक नए अध्याय की शुरुआत की चमक थी।
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Feminine
FantasíaIt's never too late to learn something new. With the support of a loved one, anything is possible.