हवाओं से कोई परेशान हैं
तो कोई काँटों में उलझा हुआ है
जंमाने की गरदिश से कोई परेशाँ
तो क़िस्मत के चक्कर में उलझा हुआ है
नहीं रास्ता कोई आसाँ यहाँ पर
कहीं घाटियाँ तो कहीं पर है पत्थर
चले आख़िर कहाँ तक कोई संभलकर
नदी से बढ़ा आगे देखा समंदर
ज़माना सितमगर सितम ढा रहा है
परेशाँ होकर कोई जी रहा है
कोई रास्ता जब नज़र ही न आया
गले मौत को उसने हँसकर लगाया ।