निर्वासन (प्रेमचंद)

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प्रेमचंद

क्रम

निर्वासन : 03

नैराश्य लीला : 10

कौशल़ : 22

र्स्वग की देवी : 27

आधार : 36

निर्वासन

परशुराम -वहीं-वहीं दालान में ठहरो!

मर्यादा-क्यों, क्या मुझमें कुछ छूत लग गई!

परशुराम-पहले यह बताओं तुम इतने दिनों से कहां रहीं, किसके साथ रहीं, किस तरह रहीं और फिर यहां किसके साथ आयीं? तब, तब विचार...देखी जाएगी।

मर्यादा-क्या इन बातों को पूछने का यही वक्त है; फिर अवसर न मिलेगा?

परशुराम-हां, यही बात है। तुम स्नान करके नदी से तो मेरे साथ ही निकली थीं। मेरे पीछे-पीछे कुछ देर तक आयीं भी; मै पीछे फिर-फिर कर तुम्हें देखता जाता था,फिर एकाएक तुम कहां गायब हो गयीं?

मर्यादा - तुमने देखा नहीं, नागा साधुओं का एक दल सामने से आ गया। सब आदमी इधर-उधर दौड़ने लगे। मै भी धक्के में पड़कर जाने किधर चली गई। जरा भीड़ कम हुई तो तुम्हें ढूंढ़ने लगी। बासू का नाम ले-ले कर पुकारने लगी, पर तुम न दिखाई दिये।

परशुराम - अच्छा तब?

मर्यादा-तब मै एक किनारे बैठकर रोने लगी, कुछ सूझ ही न पड़ता कि कहां जाऊं, किससे कहूं, आदमियों से डर लगता था। संध्या तक वहीं बैठी रोती रही।ै

परशुराम-इतना तूल क्यों देती हो? वहां से फिर कहां गयीं?

मर्यादा-संध्या को एक युवक ने आ कर मुझसे पूछा, तुम्हारेक घर के लोग कहीं खो तो नहीं गए है? मैने कहा-हां। तब उसने तुम्हारा नाम, पता, ठिकाना पूछा। उसने सब एक किताब पर लिख लिया और मुझसे बोला-मेरे साथ आओ, मै तुम्हें तुम्हारे घर भेज दूंगा।

परशुराम-वह आदमी कौन था?

मर्यादा-वहां की सेवा-समिति का स्वयंसेवक था।

परशुराम -तो तुम उसके साथ हो लीं?

मर्यादा-और क्या करती? वह मुझे समिति के कार्यलय में ले गया। वहां एक शामियाने में एक लम्बी दाढ़ीवाला मनुष्य बैठा हुआ कुछ लिख रहा था। वही उन सेवकों का अध्यक्ष था। और भी कितने ही सेवक वहां खड़े थे। उसने मेरा पता-ठिकाना रजिस्टर में लिखकर मुझे एक अलग शामियाने में भेज दिया, जहां और भी कितनी खोयी हुई स्त्रियों बैठी हुई थीं।

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⏰ पिछला अद्यतन: Jul 23, 2009 ⏰

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