प्राक्कथन: श्री विनोद प्रसाद सिंह्
23 मार्च, 1910 को डॉ. लोहिया का जन्म हुआ। यदि वे जीवित होते तो अपने 100वें साल में प्रवेश करते। अगले वर्ष अर्थात् 2010 के 23 मार्च को सौ साल पूरा कर लेते। इसलिए इस साल डॉ. लोहिया की जन्मशती मनाने की शुरूआत औपचारिक रूप से हो रही है।
इसका कोई केन्द्रीय स्वरूप शायद ही बने, फिर भी लोग अपने-अपने ढंग से जो भी कर रहे हैं उसका औचित्य साबित करने के लिए डॉ. लोहिया के विचारों का विश्लेषण करेंगे अर्थ लगायेगे।
यह भी अपने में महत्वपूर्ण है, ऐसा नहीं है कि यह पहली बार होगा और केवल डॉ. लोहिया के विचारों के साथ होगा। प्रत्येक इतिहास पुरुष के साथ ऐसा होता है। बाबा तुलसीदास बहुत पहले कह गए थे। जाकि रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी जिन तैसी।
मुझे लगने लगा है कि जो व्यक्ति जितना बड़ा होता है उसके बारे में भ्रांतियां भी उतनी होती हैं। इसके अपवाद बहुत कम है।
डॉ. सुनीलम के कुछ लेखों का संकलन के रूप में प्रकाशित होने की सूचना मुझे मिली है।
लोहिया द्वारा प्रतिपादित सप्तक्रांति की प्रासंगिकता वाला संकलन लेख ध्यान से पढ़ा है।
लोहिया समाजवादी थे लेकिन लीग से हटकर वे किसी भी अर्थ में नियतिवादी नहीं थे। उन्होंने जिस इतिहास दृष्टि का प्रतिपादन किया उसमें कहीं भी ऐसा नहीं रहा कि इसके बाद ऐसा ही होगा। हाँ, उन्होंने बेहतर मानव समाज की कल्पना जरूर की और उसकी किरण उन्हें कहां दिखी यह सबसे महत्वपूर्ण है।
उन्होंने 20वीं सदी को सर्वाधिक निर्दयी माना नाइंसाफी वाला माना लेकिन उनमें आशा की किरण यह दिखायी दी कि जहां-जहां नाइंसाफी है वहां-वहां उसका प्रतिकार है, प्रतिरोध है इसमंे उम्मीद बंधती है कि अगर अन्याय होगा तो प्रतिकार भी होगा और अन्याय तथा प्रतिकार की टकराहट से अन्याय का अंत भी हो सकता है। हमें साप्तक्रांतियों पर जोर देने से ज्यादा अन्याय के नए नए रुपों को पहचानने की जरूरत है। और फिर उसके प्रतिरोध की भी। डॉ. सुनीलम किसानों के बीच संघर्ष कर सरकारों की किसान विरोधी नीतियों का प्रतिरोध कर भी रहे हैं।
डॉ. लोहिया की चिंतनधारा में अंतिम कुछ नहीं है। नई घटनाएं, नई सूचनाएं, नए संदर्भ हमें नए निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए बाध्य करते रहेंगे।
डॉ. सुनीलम ने इस ओर इंगित किया है यह शुभ लक्षण है।
अतः मेरी हार्दिक शुभकामनाएं उनके साथ हैं।
प्रो. विनोद प्रसाद सिंह
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