"मन सिहर उठता है"

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मीत मन के तुम किसी दिन दूर होगे
मन सिहर उठता सहज इस कल्पना से

      जानता है और कहलाता है मन
      जो निकट आता उसे जाना जरूर

नियति का यह भी नियम कितना निष्ठुर
एक दिन बनती निकटता स्वयं दूरी
आज जो है सत्य कल सपना बनेगा
मन सिहर उठता सहज इस कल्पना से

जो मिला है आपसे वही क्या कम मगर
मन तो कहता हैजब तक पास हो तुम
जिन्दगी तब तक चले न आगे पल भर
प्राण पिक के प्राण धन मधुमास हो तुम

तुम न होगी तब भी क्या जीवित रहुँगा
मन सिहर उठता सहज इस कल्पना से

किस तरह विश्वास कर लूँ कि तन में
गंध होगी पर नहीं आवास होगा
चाँद तो नभ पर रहेगा मुस्कुराता
दूर धरती पर मगर शशी हास होगा

    तुम न होगे और यह राका रात होगी
    मन सिहर उठता सहज इस कल्पना से

   बैठने लगता ह्रदय जब कल्पना पर
   दूर होगे सत्य में तब मन क्या कहेगा
     तब विरह प्रत्यक्ष वह कैसा लगेगा
   रात दिन यही रहेंगे पर आप न होंगे

  मन सिहर उठता सहज इस कल्पना से  ।

   

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