" वह शाम जिन्दगी की आयेगी जाने किस दिन
मैं मुंतज़िर हूँ जिसका साहिल से दूर रहकरकिश्ती को छोड़कर अब मौजों में ढूढता हूँ
मंज़िल को ढूंढता हूँ मंज़िल से दूर रहकर "मैंने तो चाहा सफर जल्दी मैं पूरा कर लूँ
तेरी बाहों का सहारा लेकर मैं चलता रहूँ ।थक गए पाँव तो मंज़िल भी मुझे दूर लगी
थी बहुत पास मगर दूर लगी बहुत दूर लगी ।कोई आवाज़ न देना मुझे जब दूर लगूँ
अपनी मंजिल से भटकता हुआ कुछ दूर चलूँ ।अपने कंधों पर बहुत बोझ लिए चलता रहा हूँ
मुझ पे हँसना न अगर मज़बूर लगूँ ।सूर्य उगता है सुबह शाम को ढल जाता है
जिन्दगी का सफर भी बोझ सा बन जाता हैऐसे लम्हों में मेरे पास रहो काफी है
दूर जाओ न खड़े पास रहो यह काफी है ।