अनाथ

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उस बच्चे के मासूम से चेहरे को देखकर बरस्बर प्यार उमड़ आता था। ईश्वर द्वारा की गयी नाइंसाफ़ी पर मन थोड़ा खिन्न भी हो गया था। चार वर्ष की उस बच्ची के माता पिता एवं परिवार के बाकी सदस्य एक साथ भूकंप की चपेट में आकर उसे अनाथ बना चुके थे।

मैंने उस बच्ची को चूम लिया। उसके प्यारे से चेहरे पर अचानक एक ख़ुशी की लहर सी दौड़ी पर मुझे देखकर बुझ गयी। शायद चूमने से उसे लगा मानो माँ वापस आ गयी हो।

मेरे मन में दुविधा चल रही थी की अब उस बच्ची का क्या करूँ। एक ख्याल था की अपने साथ ले जाऊँ और अपनी बेटी की तरह प्यार दूँ। दूसरा ख्याल उसे किसी अनाथालय में पहुँचाने का था। अभी मैं सोच ही रहा था, की मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो कुछ निगाहें मुझे घूर रही है। मानो मेरी पीठ पर उन निगाहों से उत्पन्न होने वाली गरमी का अहसास हो रहा हो। इससे पहले की मैं पलट पाता, मुझे उनमें से एक की आवाज़ सुनाई दी।

"आजकल छोटे बच्चों के साथ भी बलात्कार की घटनाएँ हो रही है।"

दूसरी आवाज़ मानो मुझे सुनाने हेतु थोड़े ऊँचे स्वर में आई, "ठीक कहती हो। आजकल किसी का भरोसा नहीं कर सकते।"

मुझपर मानो घड़ों पानी फिर गया हो। मैं गुस्से और वितृष्णा से भर गया। क्या हमारे समाज की मानसिकता इतनी संकीर्ण हो गयी है की एक व्यक्ति का एक मासूम और प्यारी से बच्ची के प्रति दिखाई गयी रूचि को गलत ही समझेंगे? क्या ये एक मासूमियत के प्रति वात्सल्य भरा रुझान नहीं हो सकता? क्या वात्सल्य सिर्फ़ माता पिता ही दिखा सकते है? परंतु एक और ख्याल आया जिसने उन महिलाओं की मानसिकता का समर्थन किया। आज मैं स्वयं किसी अनजान व्यक्ति को अगर एक छोटी सी बच्ची में अधिक रूचि लेते हुए देखूँ, तो शायद मैं भी आश्वस्त ना होऊ। हम जिस सामाजिक परिप्रेक्ष्य से इन विचारों को अपने मस्तिष्क में आश्रय देते है, वो किसी से छुपे नहीं है। आज मेरी स्वयं की स्थिति उन महिलाओं के आसपास ही है। फर्क सिर्फ़ इतना है की आज मैं विचार उत्पन्न करने वाली श्रेणी में ना होकर विचार उत्पन्न कराने वाली श्रेणी में हूँ।

"कुच काने को दो ना, बुक लगी ले।" उसकी तोतली जबान से निकले शब्दों ने मेरी विचार तंद्रा को तोड़ दिया। साथ ही इस एक वाक्य ने मेरी दुविधा भी दूर करदी। अब मुझे पता था की उस बच्ची के साथ क्या करना है। मैं सारे अनाथ बच्चों का भविष्य तो नहीं सुधार सकता, परंतु ईश्वर ने इतना दिया है मुझे की एक बच्चे की परवरिश मैं ढंग से कर पाऊँ।

"चलो मेरे साथ, कुछ खाते है, फिर घर चलते है। आज से तुम मुझे अपना पापा समझो।" कहकर मैं उसे लेकर सामने भोजनालय की और चल दिया। आब मुझे उन औरतों की निगाहों का कोई भय नहीं था। मुझे पूरा विश्वास था की मैं सही कर रहा हु। और उस वक़्त भोजनालय की और जाते वक़्त उस बच्ची के चेहरे की चमक मेरे विश्वास की प्रतिक थी।

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