AshokShukla3's Reading List
15 stories
भूमि समस्या (आदि से वर्तमान तक) by AshokShukla3
AshokShukla3
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धरती पर अधिपत्य को लेकर संघर्ष होते रहे और अंततः धरती अपने उस स्वरूप में आ गयी जो आज विद्यमान है जिसमें अधिपत्य के आधार पर देशों का निर्धारण हुआ। .....इसी समस्या के मूल में जाकर मुख्यतः भारत के संदर्भ में व्यौरा जुटाया गया है। ...
आज भी जिन्दा हैं महात्मा गांधी...! by AshokShukla3
AshokShukla3
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धाय.... धांय....धायं ....की आवाज के साथ 30 जनवरी के दिन महात्मा गांधी की जीवन लीला सम्माप्त हो गयी थी पर...... नाठुराम गोडसे! क्या तुम सचमुच गांधी को मार पाए?
चेतन भगत 'हाफ गर्लफ्रैन्ड' की समीक्षा by AshokShukla3
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कुछ वर्ष पहले जो चेतन भगत दूसरे निर्माता निर्देशकों पर उनकी कहानी को चुराने का आरोप लगाते थे आज स्वयं उन पर ही एक नये लेखक की कहानी को चुराकर उपन्यास का ताना बाना बुनने का आरोप लग रहा है
कितने सुदामा चरित? by AshokShukla3
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कवि नरोत्तमदास का एकमात्र खण्ड-काव्य ‘सुदामा चरित’ (ब्रजभाषा में) मिलता है जो हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर मानी जाती है
कोलाहल से दूर by AshokShukla3
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समाज सेवा, राजनीति, शिक्षा जैसे अनेक क्षेत्रों में बड़ा कोलाहल मचा रहता है कि अमुकजनों ने बड़ा काम किया है परन्तु कुछ ऐसे भी है जिन्हें कोलाहल से दूर रहकर काम करने में ही आनंद का अनुभव होता है । यह पृष्ट उन्ही प्रयासों को स्मरण करने के लिए निर्मित किया गया है।
चेतन भगत के उपन्यास की समीक्षा by AshokShukla3
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चेतन भगत के उपन्यास टू स्टेटस का हिन्दी अनुवाद रूपा पब्लिकेशन ने 2012 में छापा है समूचे उपन्यास की समीक्षा
वाटपैड हिन्दी साहित्य पहेली by AshokShukla3
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हिन्दी गद्य साहित्य से जुडी पहेलियों का अनूठा संकलन जो आपके हिन्दी साहित्य ज्ञान को बढायेगा
पुष्पा सक्सेना के उसका सच  की समीक्षा by AshokShukla3
AshokShukla3
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नारी मन के आंतरिक विद्रोह की कहानियां
आधा-अधूरा by AnwarSuhail
AnwarSuhail
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पढ़े-अनपढ़े ------------------------ आह ये भारत की दीन-हीन दरिद्र भाषाओं में लिखने वाले जाने क्या समझते खुद को भीड़ के आगे मशाल लेके चलने वाले रहनुमा उन्हें ज्ञात हो जाए अब भीड़ ने अपना रहनुमा खोज लिया है उनके रहनुमा बने रहने के दिन लद गये और इतने बरस सिर्फ लिखकर, छपकर उन्होंने इकट्ठा ही किया है कूड़ा कितने कम हैं सिरफिरे पाठक उनके कि जिनकी किताबों के प्रथम संस्करण की छपती हैं सिर्फ पांच सौ प्रतियाँ यदि नहीं लगे कोर्स-वोर्स में तो फिर दूसरा संस्करण छाप नहीं पाते प्रकाशक.. आह ये लिखकर, छपकर पुरुस्कृत हुए लेखक जीते हैं इस भरम में कि बो रहे हैं पाठकों के ज़रिये आम-जन में विसंगतियों के विरुद्ध प्रतिरोध, असहमति के बीज क्या उन्हें मालूम नहीं कि सत्ता और सेठ, देखते किस रूप में कि किस्सा लिखना, कविताई करना नहीं है कोई ऐसा काम जिससे हिल जाए यथा-स्थिति के सिंहासन के पाये... लाखों लेखकों के
आओ कुछ रूमानी हो लें by krish1966
krish1966
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