उसने कहा क्या इश्क था ?
हमने कहा उम्मीद थी।
उम्मीद से फिर इश्क में,
तब्दील होने से रही ।।
फिर भी चली, आगे बढ़ी,
चलती रही फिर ना रुकी।
आयत बनी, सजदा हुई,
शायद पुजारन बन गई।
फिर मजहबी उन्माद में,
हिन्दू हुई, मुस्लिम बनी।।
उम्मीद से फिर इश्क में,
तब्दील होने से रही ।।
खेत की पगदंडीयों पर,
क्यारियों में खेलती।
गांव के सूखे कुओं को,
सब्र बनकर झेलती।
बदली बनी, सावन हुई,
फिर भी ज़मीं ना तर हुई।
उम्मीद से फिर इश्क में,
तब्दील होने से रही ।।
फिर भी वो चलती ही रही,
क्युकी उसे रुकना नहीं।
उम्मीद को उम्मीद है कि,
एक ना एक दिन सही।
वो इश्क में मिल जाएगी,
वो इस तरह मरती नहीं।।
कर्मेन्द्र शिव