गंगासागर धन्य माघ मे स्नानार्थी सब डूबकी देत ; मकर-संक्राँतिक पुण्य पर्व मे उत्तरायण सूर्यक सुधि लेत। नया वर्ष केर भेल पदार्पण अछिशिशिरक अवसानक काल; आबि रहल रितुपतिक सवारी नील नभक प्रत्यासित भाल। सृष्टि सँ स्निग्ध जुडल प्र ाणी केर तन-मन होएत स्वत: स्फूर्त; व्यष्टि-व्यष्टि होइए समष्टि सँ तुलित-सम्पुटित पाबि मुहूर्त। भारतीय मानसक उड़ान मे सागर लहरि भरि जाइछ छन्द; लौकिक-सांस्कृतिक प्रभाष तैं युग-युग से चलि रहल अमन्द। शब्द सुभग संक्रान्ति सुहावन लबइत अछि परिवर्तनक हिलोर; मुग्ध माँगलिक विभा पसारति छूबि भू-गगनक ओर आ छोर। जाडठाढ भएनहुँ समग्र अछि नहिं लघु वीचि-विचुम्बन मन्द ; सुनि पदध्वनि अबइत आदित्यक उष्मा भरइत अछि आनन्द । शारदा नन्द दास परिमलAll Rights Reserved