
"जिस बनारस की गलियों में याशी पली-बढ़ी, वहां हर मंदिर की घंटी उसके शरीर में एक कंपन पैदा करती थी। लेकिन उसे नहीं पता था कि उस कंपन की असली पुकार बनारस की मस्जिदों से उठेगी, अज़ानों के बीच उसकी रूह कुछ और ढूंढ रही थी - कुछ हराम, कुछ पवित्र... और सब कुछ उसकी मर्ज़ी से।"All Rights Reserved