A Heart Touching Poem Reveals The Hypocrite of our society...... ढांपता है देता है सुक़ून अक्सर , तो कभी नुमाइश-ए-ज़िस्म भी करता है । कपड़ा तो वही है , पास बे-क़द्रों के पास हो तो अपने नंगेपन से डरता है ॥ मुर्दा मज़ारों , इबादत-ख़ानों की मरमरी दीवारों , समाधी के पत्थरों , अरे !! चूमने की तुम्हें तो , रवायत है यहां , रब के बनाये ज़िन्दा किसी शाहकार को चूम लें तो , क्यूं हाहाकार होता है ॥ कपड़ा सही है , हिफ़ाज़त के लिये हो जब तक़ , गलत हो जाता है , गुलामी की वज़ह बनकर । कपड़ा कभी इठलाता है तिरंगे से लगकर तो कहीं कुछ तोड़ जाता है शहीद का कफ़न बन कर ॥ कपड़ा कभी पगड़ी से लग इज़्ज़त और रुआब बन जाता तो कभी बेबस के ज़िस्म से नुचते वक़्त बुरा एक ख़्वाब बन जाता है ॥ कपड़ा मासूम है अपना है जब तक बदल लेता है वो भी भेष ऐयारों के हाथों मे पड़कर कहने वाले तो ये भी कहते हैं कि " गुनाह होता नुमाया होना ज़िस्म का ग़र , तो ख़ुदा भी छुपा कर रख़ता औरत को यूं ज़लवा