कपड़ा भी भेष बदलता है
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Ongoing, First published Aug 06, 2015
A Heart Touching Poem Reveals The Hypocrite of our society......

ढांपता  है देता है सुक़ून अक्सर ,
	तो कभी नुमाइश-ए-ज़िस्म  भी करता है  ।
कपड़ा तो  वही है ,
पास बे-क़द्रों के  पास हो तो अपने नंगेपन से डरता है  ॥
 
	मुर्दा मज़ारों , 
इबादत-ख़ानों की मरमरी दीवारों ,
	समाधी के पत्थरों  , अरे !!
चूमने की तुम्हें तो , रवायत है यहां ,
रब के बनाये ज़िन्दा किसी शाहकार को चूम लें तो ,
क्यूं हाहाकार होता है ॥

कपड़ा सही है , हिफ़ाज़त के लिये हो जब तक़ ,
गलत हो जाता है , गुलामी की वज़ह बनकर । 
 
कपड़ा कभी इठलाता है 
तिरंगे से लगकर 
तो कहीं कुछ तोड़ जाता है 
शहीद का कफ़न बन कर ॥ 
 
कपड़ा 
कभी पगड़ी से लग 
इज़्ज़त और रुआब बन जाता 
तो कभी 
बेबस के ज़िस्म से नुचते वक़्त
बुरा एक ख़्वाब 
बन जाता है ॥
 
  
कपड़ा मासूम है 
अपना है जब तक 
बदल लेता है वो भी भेष 
ऐयारों के हाथों मे पड़कर 
 
कहने वाले तो 
ये भी   कहते हैं कि 
" गुनाह होता नुमाया होना ज़िस्म का ग़र ,
तो ख़ुदा भी छुपा कर रख़ता 
औरत को यूं
ज़लवा
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Sher Arz Hai

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Adna si shayar hoon Kabhi gham me Kabhi khushi me Shayri karti hoon Kuch zyada ilm nahi Mujhe is fan ka magar Bas jo dil me aya Wahi likh deti hoon