आधा-अधूरा
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Complete, First published Oct 05, 2013
पढ़े-अनपढ़े 
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आह ये भारत की 
दीन-हीन दरिद्र भाषाओं में लिखने वाले 
जाने क्या समझते खुद को 
भीड़ के आगे मशाल लेके चलने वाले रहनुमा 
उन्हें ज्ञात हो जाए अब 
भीड़ ने अपना रहनुमा खोज लिया है 
उनके रहनुमा बने रहने के दिन लद गये 
और इतने बरस सिर्फ लिखकर, छपकर 
उन्होंने इकट्ठा ही किया है कूड़ा 
कितने कम हैं सिरफिरे पाठक उनके 
कि जिनकी किताबों के प्रथम संस्करण की 
छपती हैं सिर्फ पांच सौ प्रतियाँ 
यदि नहीं लगे कोर्स-वोर्स में तो फिर 
दूसरा संस्करण छाप नहीं पाते प्रकाशक..

आह ये लिखकर, छपकर पुरुस्कृत हुए लेखक 
जीते हैं इस भरम में कि बो रहे हैं 
पाठकों के ज़रिये आम-जन में 
विसंगतियों के विरुद्ध प्रतिरोध, असहमति के बीज 
क्या उन्हें मालूम नहीं कि 
सत्ता और सेठ, देखते किस रूप में 
कि किस्सा लिखना, कविताई करना 
नहीं है कोई ऐसा काम जिससे हिल जाए 
यथा-स्थिति के सिंहासन के पाये...

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किस गुल से हुस्न टपकता है किस खुश्ब की रवानी रहती है तेरे नर्म होंठो की अरक हर गुलशन की कहानी कहती है ........ (जब सहबा ए कुहन....) और जबसे सुना है उनके खयालात हमारी कब्र को लेकर जनाब! हमें तो अब मरने से भी मोहब्बत हो गई ...... (मोहब्बत हो गई...) इस्तिहारा करूं, इस्तिखारा करूं तू फिर मिले तो मैं इश्क दोबारा करूं ...... (तू फिर मिले...) फिर अंधेरों में नए शफ़क की तलाश है फिर नया दिन नए सफर की तलाश है ...... (तलाश है....) . इश्क़ मेरा हिकायत-ए-मग़्मूम तो नहीं? मेरी जां हमारा इश्क़ कोई जुल्म तो नहीं? ....... (इश्क़ मेरा....) "अगर तुम हमसे आश्ना हो, तो फिर ठीक है 'गर नहीं तो फिर कुछ नहीं हमारा तो तआ'रुफ़ ही तुमसे है अगर तुम नहीं तो फिर कुछ नहीं" ..........( तो फिर कुछ नहीं....) . . . . . . For more interesting poetries you can continue reading this book till the end. Yeah I know some of poetries from this book is not that good but don't worry move forward because I'm damn sure you'll surely the next one because sometimes my mind doesn't know how to put actual words and that's how I end up with anything similar and sometimes it doesn't get along. For that please
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