पढ़े-अनपढ़े
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आह ये भारत की
दीन-हीन दरिद्र भाषाओं में लिखने वाले
जाने क्या समझते खुद को
भीड़ के आगे मशाल लेके चलने वाले रहनुमा
उन्हें ज्ञात हो जाए अब
भीड़ ने अपना रहनुमा खोज लिया है
उनके रहनुमा बने रहने के दिन लद गये
और इतने बरस सिर्फ लिखकर, छपकर
उन्होंने इकट्ठा ही किया है कूड़ा
कितने कम हैं सिरफिरे पाठक उनके
कि जिनकी किताबों के प्रथम संस्करण की
छपती हैं सिर्फ पांच सौ प्रतियाँ
यदि नहीं लगे कोर्स-वोर्स में तो फिर
दूसरा संस्करण छाप नहीं पाते प्रकाशक..
आह ये लिखकर, छपकर पुरुस्कृत हुए लेखक
जीते हैं इस भरम में कि बो रहे हैं
पाठकों के ज़रिये आम-जन में
विसंगतियों के विरुद्ध प्रतिरोध, असहमति के बीज
क्या उन्हें मालूम नहीं कि
सत्ता और सेठ, देखते किस रूप में
कि किस्सा लिखना, कविताई करना
नहीं है कोई ऐसा काम जिससे हिल जाए
यथा-स्थिति के सिंहासन के पाये...
लाखों लेखकों के