एहसास (realization )"दादी "1

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उनसे जब मेरी मुलाक़ात हुई अजीब सा माहौल था. अपने बेटी को पहला लड़का हुआ और बहु को लड़की. हाँ यह और बात रही आपने खानदान का पहला चिराग. बहु को देख़ने की फुर्सत कँहा, बो तो अपने डाक्टर पिता यानी मायके पर थी. अजीब सा रित हैं हमारी, हम जाने अनजाने रिश्तो में प्यार घोलना भूल जाते और चरित्र पर दोष देते
बक्त के साथ रिश्तो में दुरिया आ गई, जिसके लिए मिठास ज्यादा घोलें बो करबाहट में बदल गई. .।.... दादी को शुरू से ही बहु ना पसंद थी, सायेद हर सास को होता हैं, और बहु के पिता डाक्टर, जो सायेद दुरी या और ही बढ़ा दी भले ही बो सुशील शांत क्यों ना हो. उन दिनों दादी अपने बच्चों के साथ गाँव पर रहती थी. हर घर की कहानी की तरह, उनका घर भी हराभरा रहा. दादा जी ऊंचे पद्द पर बो भी सरकारी कर्मचारी रहे. धीरे धीरे बेटियों की शादी हो गई, ससुराल चले गये. बेटे की भी शादी हुई पर जमाना बदला, बीबियाँ साथ चल दिए, जब बेटे को फुर्सत मिलती, बहु भी साथ आती, बक्त यूँ चलते गये. दादी अब रिटायर्ड दादा के साथ बहीं गाँव पर रहने लगी. खेती बारी, मबेसी, मंदिर, पूजा पाट, कितने सारे काम......... ख़ुश रहे ने की दबा थी, जो मिलती गई. दादाजी चल बसें, क्रिया कर्म के बाद बेटों ने मिन्नतें की साथ चलने की, पर उनको प्यारा तो..............
दादा के पेंशन ने उनको नया जन्म दिया, हाथ ो में इतना पैसा जिंदगी मे पहली बार, जैसे पंख लग गये. जब फसल पकते तब घर लौट ती बरना किराये की गाड़ी लेती और रिश्ते दार, बेटियों की घर घूमने निकल जाती, अबतो जैसे मज़े के दिन थे,.... पर दुख इस बात की थी बेटों से दुरिया बड़ ते गये, पर बेटा अनजान. अब बेटा भी retired हो गया. ये सोच माँ के साथ बाकि बक्त बीते गाँव पर बसने चले पर..... अपने बूढ़ी माँ की खाविश को नजर कर बेटे ने शहर मे शानदार घर बनाया, पर बो क्या जाने उनके दिल की बात, बो माँ पूजा से पहले अब आते एक तरह से बेटे को निमंत्रण देने...... बेटे को दर्द हुआ पर उसने अपने को ही दोषी समझा..
फिर एक बक्त आया, दादी का बेटा दादा बना, दादी की बेटी भी दादी बनी............ कहानी फिर से एक ही राग अलाप करती रही        .दादी, बेटी की दादी बनने पर ज्यादा ख़ुश थी, बो उस नातिन के घर अक्सर रहा करती................ बक्त ने अब करबट लिया, या फिर बो कहना, ""स्वर्ग यहीं नर्क यहीं """नातिन के घर दादी फिसल गई, उनको लकबा मार गया, नातिन बहाने बनाकर उनको गाँव छोड़ गये........ बेटा --बहु अपने जिम्मेदारी के साथ उनकी सेबा करते रहे, अब साल भर हो चला कोई पास ना आये , जिनके लिए प्यार उथल जाते बो दूर से ख़बर लेते, बो भी कभी कभार.... ....... म्रित्यु सैया पर उनको अब बेटे याद आये बोलो शहर का घर बेच दो मेरे पास आयो. ......... आज उस शहर बाले घर से प्यार दादी की बेटे को ज्यादा रहा. और ऐसा क्यों ना हो उसके चार दीवारों में उनको दादा /नाना बनाया, दादी की उम्र की तरह आज उनका बेटा इस स्वाद को चख़ा.... फिर भी बेटा माँ के प्रति कर्तब्य समझ उनकी सेबा करता रहा,, की बो कुछ और दिन जी ले

सम्मान, कर्तब्य बोध... ना जाने कितनी बाते हम जानते पर उसे स्वीकारे तो,.... उम्र क़िताबी ज्ञान से ऊँची हैं अगर नज़र सही हो, अंधा प्यार, बिन सोचे समझे कर्म,.. कितने जिंदगी को सबरने के बदले दुख का कारण बन जाते.. सब अपने हाथ में होकर भी हम समझ नहीं पाते
या फिर सायेद यही जिंदगी हैं, बिन सोच समझ हम गलतियां करते और जिंदगी के अंतिम छोड़ पे अहसास होती हैं, या फिर ना जाने स्वार्थ तब भी रह जाते

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