पतझड़

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तुम्हारे बिना
जीवन में जो शून्यता होती
उसे सोच कर ही
मैं डर जाता हूँ
कि मुझे ठंड में
धारदार बयार में
नग्न ठिठुरना कबूल है
पर मैं अब पतझड़ में
जाना नहीं चाहता
कि मेरा मन
लू के थपेड़े ख़ाता
मेघों की कड़कड़ाहट सुनता
फिर अगले  शीत का इंतज़ार करेगा
कि जीवन कठिन हो जाने से
मेरा जीना सुगम हो जयेगा
काश! कि ये ठंड
मेरे आसमान से कभी
हवाएँ बहा न पातीं
हर सिकुड़न
मुझे बस थोड़ा  सहमा देती
मैं कभी दूर होता ही नहीं तुमसे फिर
पर पुरानी पत्तियां सब सूख कर
डाली से टूट चुकि हैं
कि अब ये हवाएँ
बदलने को बेताब हैं
कि ये सुन नहीं रही किसी की
अब इनको बस गर्म हवाओ का इंतेज़ार है
काश मैं इन मौसमों के जाल से निकल पाता
बस शीत में ही मेरा बसर होगा
मैं तो कभी मेघों के पास भी न जाता
मेरा मन मेरा बदन
बस शीट लहर में ठिठुरता
औऱ मैं तुम्हें सोचता सोचता
बस यूं ही समाप्त होता
कि किसी और को तो
एहसास ही न होता

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⏰ Last updated: Mar 02, 2021 ⏰

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