अनोखा भिखारी

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सत्यप्रकाश एक  सामान्य स्तर का व्यापारी है। घर में एक संस्कारी पत्नी, दो छोटे बच्चे और दो बड़े बुजुर्ग हैं। सत्यप्रकाश की पत्नी बहुत धार्मिक स्वभाव की है। जब भी कोई भिखारी दरबाजे पर आ खड़ा होता है तो मालामाल होकर ही हटता है। सत्यप्रकाश का स्वभाव इसके एकदम विपरीत है। उसको कोई भिखारी यदि रास्ते में भी कहीं भीख माँगता हुआ दिख जाये तो उसे लताड मार दिया करता है। उसको भिखारीयों से जानो कोई चिढ़न सी है। उसका मानना है की जब ऊपर बाले ने हमको हाथ-पैर दिए हैं तो हमें काम करना चाहिए। इस बात को लेकर किसी न किसी से उसकी नोंक-झोंक होती रहती है। कभी बाहर सड़क पर तो कभी अपने ही घर के अन्दर।
उसके इस स्वभाव के चलते आस पड़ोस के लोग उसको नास्तिक कह कर भी सम्बोधित किया करते हैं। वो तो यहाँ तक कह डालते हैं कि भगवान न करे कभी तुमको भी ऐसे दिन देखने पड़ जाए। जिस प्रकार से तुम भिखारीयों का अपमान करते हो, तुम्हारा भी उसी प्रकार तिरस्कार हो। परन्तु सत्यप्रकाश पर इन बातों का कोई प्रभाव न पड़ता। वो एक कान से सुनता और दूसरे कान से निकाल दिया करता।
सत्यप्रकाश की माता जी काफ़ी दिनो से तीर्थयात्रा पर जाने के लिए सत्यप्रकाश को रोज़ यह बोलकर मनाने की कोशिश कर रही होती हैं कि वक्त का क्या भरोसा कल हो न हो, एक आखरी बार तीर्थयात्रा कर ली जाए। कुछ ही दिनों में गर्मी की छुट्टियाँ शुरू होने बाली होती हैं। ऊपर से सत्यप्रकाश का काम-धाम भी कुछ ख़ास ज़्यादा नहीँ होता है। व्यस्थता  में कमी होने के चलते सत्यप्रकाश ने भी इस बार हामी भर ही दी और अगले ही दिन अपने नौकर को रेलवे स्टेशन भेजकर रिजर्वेशन करवा लिया। इस खबर को सुनते ही घर में चारों ओर बैग-पैक करने की जैसे होड सी शुरू हो गई और सब लोग जाने की तारीख़ की उलटी गिनती गिनने लगे। वैसे तो दिन कुछ ज्यादा न थे पर इन्तेजार के पल बड़ी मुश्किल से कटते हैं। शीघ्र ही वो दिन आ पहुँचा। सब लोग अपने-अपने सामान के साथ तैयार होकर दरबाजे पर खड़े होने लगे। सत्यप्रकाश ने नौकर को ऑटो किराए पर लाने भेज दिया। ऑटो के आते ही सभी लोग बैठने ही वाले होते हैं कि अचानक  एक हट्टा-कट्टा आदमी सामने आँके खड़ा हो गया और बोला:
कहीं जा रहा है बालक? जाते-जाते कुछ दान पुन्न करता जा, तेरी यात्रा सफल होगी।
उसके इतना बोलने की देर थी की सत्यप्रकाश की नज़र उस पर पड़ गयी। फ़िर क्या था, सत्यप्रकाश ने उसे खूब खरी-खोटी सुनाई। उस बाबा ने जाते-जाते सत्यप्रकाश को श्राप दिया कि तेरी यात्रा में तुझे बहुत मुसीबतें मिलेंगी और तेरी यात्रा असफल होगी। तूने एक सिद्ध बाबा को अपमानित किया है।
ऐसे ही अपशब्द कहता हुआ बह बाबा बहाँ से चला गया। घर के बाकी सदस्य यह सब सुनकर घबरा गये और बोलने लगे घर से बाहर जाते वक्त ऐसी बातें क्यो करते हो? अबशगुन होता है। सत्यप्रकाश हमेशा की ही तरह एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देता है। सभी लोग स्टेशन पर पहुँच जाते है और रेलगाड़ी का इन्तेजार करने लगते हैं। अब चूँकि भारतीय रेलगाड़ी है तो थोड़े नखरे तो बनते ही हैं, पर इस बार नखरे थोड़े ज़्यादा हो गये। परिवार के सब लोग बैठे-बैठे चाय बिस्किट ही उड़ाने लगे। सत्यप्रकाश को किताबें पड़ने का बड़ा शौक़ था। जब भी कभी काम से फ़ुर्सत मिलती तो कोई न कोई किताब लेकर बैठ जाता। वैसा ही कुछ माहोल यहाँ भी बना। बच्चे अपने-अपने पसंदीदा गानों की चर्चा में व्यस्त हो गये। पत्नी और माताजी अपनी तीर्थयात्रा के बारे में बातें करने लगीं कि कहाँ पर कोनसा मन्दिर पड़ेगा। उम्र के साथ-साथ पिताजी की आदत कुछ इस प्रकार हो गयी थी कि जहाँ भी मौका मिलता गहरी नींद में सो जाते। सत्यप्रकाश भी सभी को व्यस्त देख स्टेशन पर ही थोड़ा इधर-उधर टहलने लगा। टहलते-टहलते वह एक बुक स्टॉल पर पहुँचा। बुक स्टॉल पर किताबें देखते-देखते समय कैसे व्यतीत हुआ पता ही नहीं चला। अचानक रेलगाड़ी की आवाज़ ज़ोर से सुनाई दी। अब चूँकि सत्यप्रकाश उस किताब में कहीं खोया हुआ था तो रेलगाड़ी की आवाज़ को अचानक सुनकर चौंक गया। पीछे मुड़ कर देखा तो पता चला कि जिस रेलगाड़ी से उन सब को जाना था, यह वही थी। सत्यप्रकाश फ़टाफ़ट से अपने परिवार के पास पहुँचा और अपना डिब्बा खोजने लगा। अब चूँकि रेलगाड़ी में सीट रिजर्व थी तो ये काम थोड़ा आसानी से हो गया जो भी दिक्कत हुई बस पिताजी को रेलगाड़ी में चडाने में हुई।
यात्रा लम्बी थी तो रास्ते का सामान भी कुछ ज़्यादा था इसलिए पहले उसे ठीक से जमा कर सब लोग अपनी-अपनी सीट पर बैठ गये। फ़िर से वही क्रम चालू हो गया। बच्चों ने मोवाइल फ़ोन अपने हाथ लिया और बारी-बारी गेम खेलने लगे। पत्नी और माताजी इधर-उधर की बातें करने लगी। पिताजी को सीट मिलते ही नींद आ गयी। अब बचा सत्यप्रकाश, यात्रा छोटी हो या बड़ी, ये सम्भब है कि पानी की बोतल रखना भूल जाए परन्तु अपनी परम सखियाँ यानी कि किताबें यात्रा के सामान में न हो ये सम्भब नहीं। अतः सत्यप्रकाश भी अपनी दुनिया में खो गया।
तीर्थ-स्थल सत्यप्रकाश के यहाँ से क़रीब 1200 कि.मी. की दूरी पर था। शाम के समय वह परिवार के साथ रेलगाड़ी में चढ़ा था और अब रात के क़रीब 2 बज चुके थे। एक-एक करके डिब्बे के लगभग सभी यात्री सो चुके थे। सत्यप्रकाश को किताब पढ़ते-पढ़ते पता ही नहीं चला कि रात कब हुई। अचानक सत्यप्रकाश ने गौर किया कि रेलगाड़ी की गति कुछ धीमी हो रही है। सत्यप्रकाश ने अनुमान लगाया कि शायद कोई स्टॉप आने वाला होगा।
सत्यप्रकाश का मन किया कि देखा जाये आख़िर गाड़ी कहाँ तक पहुँची? यह देखने के लिए सत्यप्रकाश नीचे उतरा। नीचे उतरते ही उसकी निगाह अचानक पानी की बोतल पर पड़ी। प्यास तो काफ़ी देर से लग रही थी पर किताब के रोमाँच के आगे प्यास क्या चीज़ है। पर अब जैसे ही बोतल पर नज़र पड़ी तो प्यास फ़िर से जाग उठी। पानी पीने के लिए जैसे ही बोतल बैग से बाहर निकाली तो पता चला कि बोतल में पानी ही नहीं है। इतने मैं ही रेलगाड़ी के ब्रेक एक दम से लगे। अब जब रेलगाड़ी रुकी ही थी तो सोचा क्यो न पानी की एक बोतल ही ले ली जाए। सत्यप्रकाश का पूरा परिवार खर्राटे मारकर सो रहा था। उसने बिना किसी को परेशान किये आराम से हाथ-पैर बचाकर खुद को वहाँ से निकाला। रेलगाड़ी के डिब्बे से नीचे उतरते ही इधर-उधर पानी बाले को ढ़ूडना शुरू किया। स्टेशन एकदम खाली पड़ा था। दूर-दूर तक कोई पानी बाला तो क्या एक यात्री तक नज़र नहीं आ रहा था। शायद यह इस रेलगाड़ी का रेग्यूलर स्टॉप नहीं था किसी और कारणवश इसे यहाँ रुकना पड़ा था। लाइट भी ठीक से नहीं जल रही थी। थोड़ा ज़ोर देकर देखा तो दूर एक हैंड-पम्प दिखाई पड़ा। प्यास इतनी ज़ोर से लग रही थी के सत्यप्रकाश से रहा न गया और वो दौडकर वहाँ पहुँचा। पहले तो जी भरके पानी पिया, फ़िर अपने साथ लाई हुई एक बोतल भी भर ली। वह पानी पीकर लौट ही रहा था कि अचानक एक और  दूसरी रेलगाड़ी स्टेशन पर आ लगी। वह गाड़ी विपरीत दिशा से आई थी और जिस गाड़ी में सत्यप्रकाश का परिवार था उसके ठीक आगे वाले ट्रैक पर आकर खड़ी हो गई कुल मिलाकर सत्यप्रकाश को अपनी वाली गाड़ी दिखाई नहीं दे पा रही थी। सत्यप्रकाश ने तुरंत ही ओवर-ब्रिज की ओर दौड़ लगाना शुरू किया। काफ़ी कोशिश करने के बावजूद सत्यप्रकाश के हाथ से उसकी गाड़ी छूट गयी। सत्यप्रकाश ने तुरंत ही अपनी जेबें टटोलना शुरू किया। तभी अचानक याद आया कि मोवाइल से तो बच्चे गेम खेल रहे थे। पीछे की ज़ेब टटोली तो याद आया कि पर्स ऊपर की बर्थ पर लेटने से पहले बैग में रखबा दिया था। बाकी जेबें चैक करने पर पता चला कि टिकट भी पत्नी जी के हैंड-बैग में रखबा दी थी।
सत्यप्रकाश रात के क़रीब सबा दो बजे अनजान जगह पर बिना किसी संसाधन के हाथ मलता सा बैठ गया और मन ही मन कहने लगा पता नहीं आज किसका मुँह देखा था। बैसे तो सत्यप्रकाश दुआ, बद्-दुआ आदि इन सब बातों में विश्वास नहीं करता था परन्तु इस वक्त उसे लग रहा था कि ये ज़रूर उस ढ़ोंगी बाबा की बद्-दुआ का असर है। ये सोचते-सोचते अचानक उसकी हँसी छूट गई और मन ही मन कहने लगा बड़ी जल्दी सुन ली उस बाबा की बद-दुआ।
गर्मीयों के दिन थे और ह्वा भी रुकी हुई थी। नींद आना तो दूर की बात थी, ठीक से एक जगह बैठा तक नहीं जा रहा था। टहलते-टहलते सुबह हो चली और पैर दर्द करने लगे। जिस जगह पर सत्यप्रकाश पानी पीने के लिए उतरा था शायद वो कोई हॉल्ट था जहाँ गाड़ियाँ केवल किसी आवश्यक परिस्थिति में ही रुका करतीं थी। क्योंकि रात से अब तक न तो कोई यात्री ही उसे वहाँ आता दिखा और न ही कोई गाड़ी ही रुकी। सुबह होने के साथ ही आस-पास थोड़ा बहुत द्रष्य देखने को मिला। काफ़ी दूर तक खेत-खलिहान ही नज़र आ रहे थे और बस एक कच्ची सी सड़क जिस पर बीचो-बीच में घास उगी हुई थी। अब न तो पास में पैसे थे और न ही कोई और जरिया था जिससे कि अपने परिवार या किसी जान पहचान बाले से सम्पर्क किया जा सके। इस परिस्थिति में किसी भी इन्सान का धीरज सबसे ज़रूरी चीज़ होती है और एक अनुभवी व्यक्ति ही अपने धीरज को क़ायम रख पाता है। अब चूँकि कोई और रास्ता न सूझ रहा था तो सत्यप्रकाश उसी कच्ची सड़क पर चलता चला गया। साथ ही मन में अपनी पढ़ी हुई पसंदीदा कविताओं में से एक की पंक्ती गुनगुनाने लगा।
मदिरालय जाने को घर से...राह पकड़ तू एक चला चल...
चलते-चलते सूरज की किरणों की गर्माहट बड गयी थी। सत्यप्रकाश ने अपनी ज़ेब से एक रुमाल निकालकर अपना सर ढक लिया। थोड़ा और चलने पर एक सरकारी नल भी दिखाई दिया। उसे देखकर सत्यप्रकाश को एक बार फ़िर से उसी परिस्थिति का स्मरण हुआ जो कल रात थी। उसके पास जो बोतल थी वह आधी खाली हो चुकी थी और जो आधी बची थी बह लगभग इतनी गर्म थी के चाय-पत्ती और दूध के साथ चीनी मिला दो तो दो-तीन कप चाय तैयार हो जाती। सत्यप्रकाश ने झट से वो पानी फ़ैक कर दोवारा अपनी बोतल भरी और आगे चल दिया।  अब चूँकि सरकारी नल यहाँ था तो सत्यप्रकाश को आभास हो गया था कि आसपास ही कोई न कोई बस्ती या गाँव तो होगा ही। कुछ ही देर में उसे कुछ लोग भी आते-जाते दिखाई दीये। सत्यप्रकाश दोडकर उनके पास गया और अपनी परिस्थिति के बारे में बताया साथ ही आसपास रेलगाड़ी कहाँ से मिल सकती है इस बारे में पूछा। पूछने पर पता चला कि आगे के पाँच-सात गाँव निकालकर एक कस्बा पड़ेगा वहाँ से रेलगाड़ी पकड़ी जा सकती है।
चलो! अब दूर ही सही कम से कम ये तो पता चला के जाना कहाँ है। उन लोगों से रास्ता पूछकर सत्यप्रकाश आगे चल दिया। दोपहर हो चली थी। सत्यप्रकाश ने आखरी बार खाना कल शाम को खाया था और बदलता पानी पीने की बजह से बिना दरबाजा बन्द किये, स्वच्छ भारत अभियान को तो तोड़ ही चुका था। खैर ये डब्बा है ही ऐसा, रोज़ भरो रोज़ खाली करो। कुल मिलाकर अब सत्यप्रकाश के पेट एकदम खाली था और उसमें चूहे मैराथॉन कर रहे थे। पहले तो मन में ख़याल आया कि इधर-उधर किसी से कुछ माँग लेता हूँ। फ़िर अपने ही सर पर थप्पड़ मारकर बोला, "अच्छा तो अब तू भीख माँगेगा, यही करना बाकी रह गया था बस। भूल गया वो दिन जब कोई भिखारी तेरे घर पर आता था तो तू उसे इतने भाषण देता था। बोलता था कि चाहे भूखा मर जाऊँगा पर कभी भीख नहीं माँगूँगा।", साथ ही पडोसियो के ताने भी याद आने लगे कि तुमको भी जब ऐसे दिन देखने पड़ेंगे तब बोलना। सत्यप्रकाश को लग रहा था लगता है आज वो दिन आ ही गया। चाहे एक दिन के लिये ही सही भीख तो भीख ही होती है।
इतना सोचकर वह बड़ा दुखी हुआ और एक पल के लिए सोचने लगा कि मेने आजतक कितने ही भिखारीयों को भला-बुरा कहकर भगाया है। सत्यप्रकाश कल्पना करने लगा कि वह दरबाजे पर खड़ा हुआ भीख माँग रहा है और लोग उसे लताड मारकर भगा रहे हैं साथ ही बोल रहे हैं कि क्या तूने किसी भिखारी को आज तक कभी कुछ दिया है जो यहाँ माँगने के लिये आ गया है।
यह कल्पना ही इतनी भयानक थी यदि ऐसा वाकई में करना पड़े तो? यदि लोग इसी तरह उसे अपने दरबाजे से भगा दें तो? इसे जीते जी मरना न कहें तो और क्या कहें। सत्यप्रकाश का यह डर उतना बड़ा नहीं था कि उसे लोग क्या कहेंगे या उसकी बेइज़्ज़ती करेंगे। उसको इस बात का दुख था कि जो भी आज तक उसने किया, समझा और माना, क्या वो सब निरर्थक था। उसके सिद्धांत, जीवन जीने की शैली सब कुछ ग़लत था। वो गहरी सोच में पड़ गया। इस सब के चलते भूख प्यास का तो आभास ही नहीं हो पा रहा था।
जब कभी भी सत्यप्रकाश स्वयं को कभी इस प्रकार की विषम परिस्थिति में पाता तो सब काम छोड़कर अपने गुरु की बताई हुई विधि से दोनो आँखें बंद करके अंतरमुखी होकर चिंतन करने बैठ जाता। इस समय भी परिस्थिति कुछ वैसी ही थी, उसे और कुछ नहीँ सूझ रहा था। अतः वह चिंतिन करने बैठ गया।
काफ़ी देर तक चिंतन करने के पश्चात्, सत्यप्रकाश के मन मे एक विचार आया कि जब भी मेरी बहस किसी भिखारी से होती थी या इसी प्रकार का कोई व्यक्ति आकर कहता के मे इस विषम परिस्थिति में पड़ गया हूँ तो मैं उसे पचास तरीक़े बतलाता था जिससे धनोत्पार्जन किया जा सकता है। जैसे की किसी के द्वार पर जाकर कुछ सामान, भोजन या धन माँगने की जगह उससे पूछा जाए कि क्या उसके पास ऐसा कोई कार्य है जो तुम उसके लिये कर सको,  जिससे तुम अपनी जीविका के लिए कुछ अर्जित कर सको और ऐसी परिस्थिति में अपने स्थान अथवा घर पहुँच सको। इसी प्रकार के कई और उपाय सत्यप्रकाश भीख माँगने वालों को बताया करता था। सत्यप्रकाश के ऐसा करने पर भिखारी उसे ये बोलकर चले जाते थे कि "देना हो तो दे, ग्यान मत दे"। जब कभी खुद पर बन आये तब अपनाना अपने ये तरीक़े।
जैसे ही ये विचार सत्यप्रकाश के मन में आया,  उसकी सारी चिंता मानो ग़ायब सी हो गयी और मन ही मन बोला कि मेने अभी तक अपनी इन विधियों को कभी उपयोग में ही नहीं लिया और न ही मेरे कहने पर किसी भिखारी ने इसे अपनाकर देखा। अतः जब तक किसी विधि को उपयोग में नहीं लाया गया तो उसे अयोग्य कैसे घोषित कर दिया जाए। सत्यप्रकाश ने सोचा कि मैं और मेरी यह विधि सही है कि नहीं यह प्रमाणित करने का यह एक अच्छा अवसर है। यह धारणा मन में धारण करके सत्यप्रकाश आगे बढ़ा। थोड़ी दूर चलकर उसने एक किसान को खेत में कार्य करते हुए देखा। वह शायद अपने खेत को किसी फ़सल के बोने के लिये तैयार कर रहा था। कड़ी धूप में वह अकेला ही वहाँ सर पर कपड़ा बाँधकर लगा हुआ था। सत्यप्रकाश उसके पास गया और उससे पूछा:
सत्यप्रकाश : ये क्या कर रहे हो भाई?
किसान: क्यो? तुमको दिखाई नहीं दे रहा क्या?
सत्यप्रकाश: नहीं भाई, दिखाई तो दे रहा है पर समझ नहीं आ रहा कि ये है क्या?
किसान: तो क्या करेगा जानकर? खेती-बाङी करनी है क्या?
सत्यप्रकाश: अरे नहीं ! करनी तो नहीं है, पर सीखनी है। वैसे करने में भी कोई बुराई नहीं है। हमारा देश एक क्रषि-प्रधान देश है, तो खेती तो सभी को आनी ही चाहिए ना।
किसान: भाई काम करने देगा कि नहीं, ये देश-विदेश और प्रधानता की बातें कहीं और जाकर करना। यह सुनकर वह किसान आगे बढ़ गया। सत्यप्रकाश को लगने लगा कि यहाँ कोई काम नहीं बनेगा। कहीं और जाकर ट्राई करते हैं। यह सोचकर सत्यप्रकाश भी आगे बढ़ने लगा।
थोड़ा और आगे चलने पर उसे एक चारा काटने बाला, चारा काटने बाली मशीन चलाता हुआ दिखाई दिया। यह काम देखने में सत्यप्रकाश को थोड़ा आसन सा लगा। साथ ही जो आदमी उस मशीन को चला रहा था वह थोड़ा दुर्बल सा लग रहा था। इसलिए उसे यहाँ काम मिलने की थोड़ी उम्मीद नज़र आई। सत्यप्रकाश उस आदमी के पास गया और बोला, " काका थक गये लगते हो थोड़ी मदद करूँ आपकी?"
आदमी: अरे नहीं बेटा रहने दे, तू क्या मदद करेगा मैं खुद ही कर लूँगा।
सत्यप्रकाश: नहीं काका आप ज़्यादा थके से लग रहे हो, दस-पाँच मिनट सहता लो तब तक मैं ट्राई करता हूँ।
आदमी: खामखा क्यों ज़िद कर रहा है बेटा, रहने दे तेरे कपड़े भी ख़राब हो जाएँगे।
सत्यप्रकाश: नहीं काका नहीं होंगे, मैं उतार के रख दूँगा कहीं एक ओर। आप बस बैठिए और थोड़ा आराम कर लीजिए।
आदमी: ठीक है बेटा अब तेरी यही इच्छा है तो ठीक है, तू ही कर ले, मैं पास के खेत से अभी आता हूँ।
वह आदमी पास के ही किसी खेत तक गया। सत्यप्रकाश को यह काम सीधा-साधा सा लगा। हाँ थोड़ी मेहनत का काम तो था पर कुछ नया सीखने का झंझट नहीं था। उस आदमी के बताए हुए तरीक़े से सत्यप्रकाश वह काम करने लगा। अब चूँकि आदत नहीँ थी मेहनत का काम करने की तो हाथ थोड़ा धीरे-धीरे चल रहे थे और बीच-बीच में थोड़ी-बहुत लम्बी-लम्बी साँसें भी लेनी पङ रही थी। थोड़ी ही देर में वह आदमी कपड़े की एक पोटली अपने हाथ में लेकर आता हुआ दिखा। सत्यप्रकाश काफ़ी थक चुका था परंतु उस आदमी के सामने खुद को थोड़ा बलशाली प्रदर्शित करने के लिये अपनी थकाबट को ज़ाहिर नहीं करना चाह रहा था। पर एक अनुभवी इन्सान का तजुर्बा भी तो कोई चीज़ है। जैसे ही वह व्यक्ति सत्यप्रकाश के पास पहुँचा वह उसका हाल समझ गया और उसे अपने पास बुलाया। सत्यप्रकाश को अपने पास बुलाकर हाथ धोने को बोला और पूछा आम का आचार खाओगे या मिर्ची का? और अपनी कपड़े की पोटली खोली। उस पोटली में केबल चार रोटियाँ थी। उसमें से दो रोटियाँ उस आदमी ने सत्यप्रकाश के हाथ में रखी और दोनो आचार सत्यप्रकाश के सामने रख दिए। वैसे तो सत्यप्रकाश को बहुत जोरों की भूख लगी थी पर फ़िर भी पहले तो उसने एक-दो बार मना किया, फ़िर बाद में, उसमें से एक रोटी लेकर आचार के साथ खा ली। जिसने कल रात से कुछ न खाया हो उसके लिये एक रोटी न के बराबर थी परंतु फ़िर भी उसने लालच में आकर इस बात का ख़्याल रखा कि उस आदमी के पास उसके खुद के खाने जितनी रोटियाँ भी नहीं थी फ़िर भी उसने उसमें से आधी रोटियाँ उसको दे दीं। खाना खाने के बाद थोड़ा सा काम और बचा था जिसे दोनो ने बारी-बारी मिल कर पूरा किया और अपनी-अपनी राह चल दिये।
चलते-चलते दोपहर तो ढ़लने लगी थी पर गर्मी घटने का नाम नहीं ले रही थी। सत्यप्रकाश ने जो आचार खाया था उसका स्वाद अभी भी उसकी जीभ पर था और उस आदमी का यह घरेलू व्यवहार उसे अपने घर की याद दिलाने लगा। वह अपने परिवार के वारे में सोच ही रहा था कि अचानक उसने एक आदमी को अपने पशुओं को सम्भालने की कोशिश करते देखा। वह अकेला दिखाई दे रहा था परंतु पशु इतने अधिक थे कि सम्भालना मुश्किल हो रहा था।  कभी कोई पशु हाथ छुड़ा कर भाग जाता है तो कभी कोई दूसरा। सत्यप्रकाश ने गौर से देखा तो पता चला कि वह एक ग्वाला था जो दूध दोहने का प्रयास कर रहा है। सत्यप्रकाश ने उसे आवाज़ लगा कर पूछा-
सत्यप्रकाश: कैसे हो भाई? सब ठीक-ठाक?
ग्वाला : तुमको सच में नहीं दिख रहा या मेरी परिस्थिति देखकर मेरा मज़ाक उड़ा रहे हो?
सत्यप्रकाश: अरे नहीं भाई! ऐसी बात नहीं है, मैं तो बस ये कहना चाह रहा था कि क्या मैं तुम्हारी कोई सहायता कर सकता हूँ? यदि तुम चाहो तो...
ग्वाला : क्या करोगे भाई?, दूध दोहना आता है या गोबर के ओपले बनाओगे?
सत्यप्रकाश : जो तुम कहो। बैसे दूध दोहना तो नहीं आता, पर ओपले ट्राई कर सकता हूँ।
ग्वाला: ओपले बनाना आता है?
सत्यप्रकाश: नहीं पर मैंने एक बार बनाए थे बचपन में, अगर तुम चाहो तो मैं ट्राई कर सकता हूँ।
ग्वाला: करना ही है तो एक काम करो। इन पशुओं को पकड़ने में मेरी सहायता कर सकते हो तो करो। वैसे भी इसके लिये एक आदमी की ज़रूरत पड़ती ही है। पता नहीं आज हाथ बटाने बाले सब के सब कहाँ मर गये। आजा भाई खींच इसे पकड़ के जरा। सत्यप्रकाश ने एक-एक करके सारे पशुओ के सावक सम्भालने में उस आदमी की सहायता की। जब सारे पशुओं का दुग्ध-दोहन समाप्त हो गया तब उसे घर तक पहुँचाने में भी सत्यप्रकाश ने उस आदमी की सहायता की। घर जाते वक्त रास्ते में सत्यप्रकाश ने अपने बारे में उस आदमी को जो कुछ भी उसके साथ हुआ सब बताया। घर पहुँचने पर उस आदमी की पत्नी ने कहा
पत्नी: आ गये जी आप?
ग्वाला: हाँ भाग्यवान आ गया।
पत्नी उस ग्वाले के कान में फ़ुसफुसा कर : ये किसे पकड़ लाए?
उस ग्वाले ने सत्यप्रकाश के बारे में अपनी पत्नी को सब कुछ बताया।
पत्नी: आप दोनो फ़टाफ़ट से नल पर जाकर हाथ-पॉव धो लो। मेने अभी ताज़ा-ताजा मट्ठा चलाई है, आप लोग थोडी देर बैठिये, मैं अभी लेकर आई।
थोड़ी ही देर में वह पीतल के दो बड़े ग्लास लेकर बाहर निकली। सत्यप्रकाश ने वैसे ग्लास बचपन में गाँव में कभी किसी दूर के रिश्तेदार के यहाँ, उसकी शादी के समय देखे थे। उसे याद आया कि वह और उसके पिताजी दोनों मिलकर भी उस ग्लास को पूरा पी नहीं सके थे।
शाम के क़रीब छ: बज चुके थे। सत्यप्रकाश को भोजन किये हुए पूरे चौबीस घंटे हो चुके थे। तब से अब तक बस वह एक रोटी ही नसीब हुई थी। पहले तो थोड़ा झिझका पर फ़िर ज़ोर जबरजस्ती करने पर पीना शुरू किया। जो ग्लास बचपन में दो लोग मिलकर भी नहीं पी सके थे, वह एक मिनट से भी कम समय में खाली हो गया। अब भूख ही इतनी तेज लग रही थी कि शायद ऐसे दो ग्लास और आ जाते तो भी कम पड़ जाना मामूली बात थी। थोड़ी देर और बात करने के पश्चात् सत्यप्रकाश वहाँ से जाने लगा। जैसे ही वह जाने की आज्ञा लेने लगा उस व्यक्ति ने सत्यप्रकाश को आज रात वहीं रुकने के लिए आग्रह किया। सत्यप्रकाश ने जब उसे याद दिलाया कि वह यहाँ घूमने-फिरने के लिये नहीं आया है। उसकी परिस्थिति ने उसे यहाँ आने पर विवश किया है। उसका परिवार पता नहीं कहाँ और किस अवस्था में होगा। उसे उनके पास जल्द से जल्द पहुँचना है। सत्यप्रकाश ने उसे आश्वासन दिया कि वह फ़िर कभी अपने परिवार के साथ यहाँ दोबारा ज़रूर आएगा।
सत्यप्रकाश की यह बात सुनकर वह चुप हो गया और अपने घर के अंदर गया। वहाँ से  एक छोटी सी पोटली लाकर सत्यप्रकाश के हाथ में थमा दी, "ये लो रास्ते में तुम्हारे काम आएँगे"।
सत्यप्रकाश: नहीं भई!  इसकी क्या ज़रूरत है। आपने एक अंजान की इतनी सेवा की उतना ही काफ़ी है, कौन करता है आजकल ऐसे?
ग्वाला हँसते हुए : कोई अंजान किसी अंजान के यहाँ आकर ओपले भी तो नहीं थोपता आजकल। चलो! रख लो चुपचाप, ज़्यादा नखरे मत करो, और हाँ ये तो मैं उधार दे रहा हूँ, जब दोबारा अपने परिवार के साथ यहाँ आओगे ना तो सूत समेत लेते आना।
सत्यप्रकाश भावुक होकर: ठीक है, चलो ये कर्ज़ मुझे याद दिलाता रहेगा कि दुनिया में इन्सानियत अभी बाकी है और दोबारा मिलने के लिये एक ठोस वजह का काम भी करेगा।
वह व्यक्ति सत्यप्रकाश को निकट के टैम्पो स्टैंड तक स्वयं छोड़ने आया। जहाँ से सत्यप्रकाश ने पास के कस्बे तक का सफ़र तय किया। यहाँ आकर रेलगाड़ी के समय का पता किया और रेलवे स्टेशन पहुँचकर पहले अपने परिवार से सम्पर्क किया और उनको सारी बात बताई और एक निश्चित स्थान पर ठहरने को कहा। परिवार से बात करने के बाद स्वयं तत्काल मे टिकट निकलवाकर अपनी ट्रेन आने का इन्तेजार करने लगा। ट्रेन का इन्तेजार करने के साथ-साथ अपनी विधि का प्रमाण पाके जो ख़ुशी सत्यप्रकाश के चेहरे पर थी वह साफ़ दिखाई दे रही थी। अब सत्यप्रकाश का विश्वास और द्रङ हो गया था। उसे इस घटना के घटने पर दुख के स्थान पर सुख की अनुभूति हो रही थी और साथ ही स्वयं को इन्सानियत के असतित्व में होने का साझी बनने का सुनहरा अवसर उसे प्राप्त हुआ था। उसके लिये उसने परमपिता परमेश्वर को और अपने गुरु को सत-सत नमन किया।
थोड़ी ही देर में उसकी ट्रेन आ गयी और अगले ही दिन सुबह वह अपने परिवार के पास पहुँच गया। माँ और पत्नी की आँखों में ख़ुशी के आँसु भर आये। बच्चे आकर अपने पिता के पैरों से लिपट गये और सुनने में आया कि पिताजी को कल से नींद नहीं आ रही थी। चिंता के मारे इधर से उधर बेचैन होकर घूम रहे थे। सत्यप्रकाश से फ़ोन पर बात होने के बाद ही उनको चैन की नींद आई और तब से अभी तक सो रहे है। यह बात सुनकर सभी लोग खिल-खिलाकर हँसने लगे। सत्यप्रकाश ने भी नहा-धोकर सर्वप्रथम अपनी नींद पूरी की और शाम को पूरे परिवार के साथ मिलकर तीर्थयात्रा आरंभ की। तीर्थयात्रा के दौरान सत्यप्रकाश ने सभी को अपनी कहानी सुनाई कि कैसे उसकी ट्रेन छूटी। कैसे भूख-प्यास के मारे उसकी भीख माँगने तक की नौबत आ गई थी और किस प्रकार उसने स्वयं को अपने सिद्धांतों पर क़ायम रहते हुए ये महापाप करने से रोका।
तीर्थयात्रा बहुत अच्छे से हुई और सब सही-सलामत अपने घर लौट आए। अगले ही दिन से सब कुछ सामान्य तरीक़े से होने लगा। बस एक बदलाव आया। अब से यदि कोई भिखारी सत्यप्रकाश के द्वार पर आता तो उसे वह अपनी वही विधि पूर्ण विश्वास के साथ बताया करता और यदि कोई भिखारी पलटकर ये कहता के जब तुम्हारे ऊपर ये नौबत आये तब इस्तमाल करके देखना अपनी ये अनोखी विधि। यह सुनकर सत्यप्रकाश मन ही मन अपने अनुभव को चित्रित करते हुए और मुस्कुराते हुए कहता।

"अजी क्यों नहीं ? ज़रूर करेंगे बाबा जी..."

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⏰ पिछला अद्यतन: Oct 06, 2017 ⏰

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