भाग-1

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''सुन, मैं परसों पहुंच रही हूं,'' दीदी फोन पर थीं, ''यहां पर छोटे गोपाली महाराज आए हुए हैं. युवा संत और बहुत बड़े सिद्ध पुरुष हैं. कल यहां उन की संगीतमय कथा का समापन है. कोटा होते हुए, उन का उज्जैन का कार्यक्रम है. तेरे प्रमोशन का जो मामला चल रहा है उस बारे में मैं ने बात की थी. महाराज बोले कि बाधाएं हैं, हट जाएंगी. बस, तू थोड़ी सी तैयारी कर लेना. 2-4 लोग भी उन के साथ होंगे,'' फोन कट गया था.

''क्यों? क्या बात है, बड़ा लंबा फोन था?'' सीमा ने पूछा.

''दीदी का वही पुराना काम. अब किसी छोटे गोपाली महाराज को ले कर परसों घर आ रही हैं.''

''क्या यहां ठहरेंगे?'' सीमा ने पूछा.

''नहीं, ठहरेंगे तो किसी आश्रम में पर दीदी मुझ से मिलाने के लिए उन्हें घर लाएंगी.''

दूसरे दिन शाम को ही जीजी का फोन आ गया.

''सुन, हम लोग आ गए हैं. मैं सावित्री आश्रम से बोल रही हूं... तुम्हारी कालोनी की सुषमाजी के घर महाराज सुबह आएंगे, फिर वहीं से तुम्हारे घर भी आने का उन का कार्यक्रम है. जगदंबा दादी और कृष्ण मोहन को भी बता देना, वरना बाद में वे मुझे उलाहना देंगे.''

''सीमा, इस कालोनी में कोई सुषमाजी हैं, दीदी उन के साथ आने को कह रही हैं. यह सुषमाजी कौन हैं?''

''अरे, वही जो संतोषी माता के मंदिर में भजन गा रही थीं. अपने खत्रीजी के घर से हैं.''

उन का नाम आते ही मैं चौंका. मेरे सामने जलाशय विभाग के बड़े बाबू का चेहरा घूम गया.

दुबलेपतले से खत्री बाबू, हमेशा सुबह के समय अपने बच्चों के साथ घूमते हुए मिल जाते हैं. उन का बच्चा पहाड़े सुनाता चलता है. उन के तीनों बच्चे शायद दफ्तर के बाद खत्री बाबू के संगीसाथी हैं. यह राय मेरी अपनी नहीं बल्कि इस गली के सभी लोगों की है.

मैं ने थैला लिया और बाजार को चल दिया क्योंकि दीदी के आदेश के अनुसार मुझे मिठाई, मेवा और फल ले कर आने थे.

देर रात दरवाजे की घंटी बजते ही मैं समझ गया कि दीदी आ गई हैं.

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