खत्रीजी का दीनहीन चेहरा देख कर मुझे उन पर दया आ गई. मैं ने उन्हें भरोसा दिया कि मैं अपनी बहन से फोन पर बात कर के पता लगाने की कोशिश करूंगा कि सुषमाजी कहां हैं.
रात को दीदी को फोन किया तो पता चला कि वह महाराज के साथ उज्जैन चली गईं. साथ में उन्होंने यह भी बता दिया कि डरने की कोई बात नहीं है क्योंकि महाराज बहुत भले इनसान हैं.
मैं खत्रीजी के घर गया. वहां कोहराम मचा हुआ था. तीनों बच्चे गला फाड़ कर रो रहे थे. खत्री का चेहरा भी आंसुओं में डूबा हुआ था. बड़ा लड़का आले में रखी धार्मिक किताबें तथा देवीदेवताओं की तसवीरें आंगन में फेंकने जा रहा था. मुझे देखा तो रुक गया.
''फोन आया,'' खत्री ने पूछा.
''हां, दीदी तो पाटन से सीधी करौली चली गई थीं, पर सुषमाजी उज्जैन चली गईं क्योंकि अब वे वहां का नया आश्रम संभालेंगी. मैं तो आप को सलाह दूंगा कि आप उज्जैन हो आएं.''
''पुलिस स्टेशन जाने की सोच रहा था,'' खत्री बोले, ''इस से बदनामी होगी यह सोच कर चुप रह गया. महल्ले वाले भी पूछने आए थे, तो मैं ने उन को यही बताया है कि आप की बहन के साथ गई हैं, आप कृपा कर...''
''दीदी का इस में कोई कुसूर नहीं है. वह तो खुद सुषमाजी से पहली बार यहीं मिली थीं.''
''हां, पर उसे समझा तो सकती थीं.''
''दीदी बता रही थीं कि उन्होंने सुषमाजी को बहुत समझाया पर उन का मन बहुत कड़ा हो चुका था. वह तो उन के सामने ही कार में बैठ कर चली गईं.''
खत्री के यहां से लौटा तो पाया कि सीमा भी अपने भाई के साथ मायके जाने की तैयारी में है.
''क्यों? तुम्हें क्या हो गया?''
''पूरे महल्ले में बदनामी हो रही है. अच्छी दीदी आईं, मैं तो मायके जा रही हूं. 2-4 दिन में बात ठंडी हो जाएगी तो आ जाऊंगी.''
उधर उज्जैन पहुंचते ही सुषमाजी को अतिथि गृह में ठहरा दिया गया. छोटे गोपाली महाराज आश्रम की दिनचर्या में व्यस्त हो गए. उसी दिन उन के लिए भगवा रंग की सिल्क की साड़ी आ गई. केशों को ढंग से रंगने तथा खुले रखने की परंपरा और बोलते समय प्रभावोत्पादक भंगिमा की शिक्षा देने के लिए ब्यूटीशियन मोहिनीजी भी आ चुकी थीं. सुषमाजी का पूरा बदन उन की मेहनत से शाम तक निखर आया था. शाम को जब वह प्रार्थना भवन में पहुंचीं और अपने मधुर कंठ से मीरा का भजन, 'मैं तो सांवरा के रंग राची' गाया तो भक्त भावविभोर हो गए.
छोटे गोपाली बाबू ने दूरदूर तक अपने गुरु भाइयों को मोबाइल पर यह सूचना दे दी थी. यही तय हुआ था कि आने वाली पूर्णमासी पर इन को दीक्षा दी जाएगी और इसी के साथ आश्रम की व्यवस्था भी सौंप दी जाएगी.
उसी रात माधवानंद ने आ कर सुषमा को जगाया जो उस समय गहरी नींद में सो रही थी.
''कौन?''
''माधवानंद, आश्रम का सेवक.''
''क्या है?''
''आप के लिए यह मोबाइल पर संदेश है.''
सुषमा ने फोन हाथ में ले कर कान से लगाया तो आवाज सुनाई पड़ी :
''तुम मुझे नहीं जानतीं,'' आवाज किसी महिला की थी, ''तुम अपना घर, बच्चे क्यों छोड़ आईं, क्या पाओगी? ईश्वर...या कुछ और...सुनो, गोपाली पूरा बदमाश, व्यभिचारी है. दीक्षा का मतलब समझती हो, वह तुम्हारा सर्वस्व छीन लेगा. तुम कहीं की नहीं रहोगी. सारी उम्र पाप भावना से लड़ती रहोगी, यह सब छल है, छलावा है, इस से दूर रहो...''
''आप...''
''मैं उस की पत्नी हूं. महेश्वर से बोल रही हूं. तुम्हारी बड़ी बहन हूं. उस ने मुझे नहीं छोड़ा, मैं ने और मेरे बच्चे ने उसे छोड़ दिया है. यह आश्रम ही मेरा घर है, जमीन है. बच्चा उज्जैन में पढ़ रहा है, उस ने ही बताया था.
''तुम्हारे बच्चे तुम्हारे बिना रह नहीं पाएंगे, बहन. घर जाओ और हां, जब छुट्टियां हों तब अपने बच्चों और पति को ले कर यहां आना. जगह सुंदर है, मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा रहेगी.
''माधवानंद पर भरोसा करो, वह मेरा अपना खास आदमी है. वहां से निकलने के लिए तुम्हारे कमरे के पास जो बरामदा है वहां एक दरवाजा है, जो पीछे गली में खुलता है. उसी रास्ते से बाहर निकल जाओ. बस स्टैंड पर कमलाकर मिल जाएगा.''
''कमलाकर?''
''तुम्हारा भानजा, तुम्हें वह टिकट दे देगा, उस ने खरीद लिया है...शुभ रात्रि,'' और फोन कट गया था.
सुषमाजी को इस के बाद कुछ पता नहीं. भजन, पूजन सब कहीं दूर छूट चुका था. वह उस अंधेरी गली में माधवानंद का हाथ पकड़े दौड़ती चली जा रही थीं. बस स्टैंड पर कब पहुंचीं, कुछ पता नहीं. हां, वह सुंदर सा लड़का जिस ने उन के पांव छू कर टिकट व रुपए हाथ में दिए, उसे वह अब तक नहीं भूल पाई हैं.
सुबह खत्रीजी उसी तरह अपने छोटे बेटे के साथ पार्क में घूम रहे थे.
बड़ा लड़का स्कूल बस की प्रतीक्षा में लैंप पोस्ट के नीचे खड़ा था और सुषमाजी भीतर से हाथ में लंच बाक्स लिए तेजी से बाहर आ रही थीं.
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मृगतृष्णा
General Fictionगोपाली महाराज की ख्याति से प्रभावित सुषमा ने संन्यासिन बनने का निर्णय ले लिया.दीक्षा की तैयारी तकरीबन पूरी हो चुकी थी. लेकिन आधी रात को आए फोन पर उस ने ऐसा क्या सुना कि वापस अपनी गृहस्थी की ओर मुड़ गई.