जिम्मेदारी....

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Hello... दोस्तो मैं हूं उदय।।
बस अपनी जिंदगी के इस भागते हुए सफर को थोड़ा थाम कर लफ्ज़ों में पिरो रहा हूं।।
25-30 वाली उमर न समझदारी थोपने लगती है... आदमी घर का मोह छोड़ चुका होता है, छुट्टी पर भी जाए तो दिमाग में लौटकर रूटीन पकड़ने के ख्याल चलते रहते हैं। अब साल-डेढ़ साल घर न जाने पर भी फ़र्क़ पड़ना बंद हो गया है, मन थोड़ा अकेलापन चाहता है..! किसी रोज़ घर पर पड़े-पड़े बिता दो... कोई याद तक न करे.... कुछ खास फर्क तक नहीं पड़ता। अब तो शर्ट एक साइज बड़ी लेता है, ज़्यादा चलाने को नहीं, तोंद छुपाने को, उबाऊ मीटिंग्स से डील करना सीख जाता है, उसे पता होता है, यहां कई बड़ी बातें कही जाएंगी, जिसका 5% पूरा होना संभव होगा और यहां 'चाटो मत' कहने से बच गए तो साल के अंत में एकाध परसेंट बेहतर हो जाएगा। सबकी अपनी लड़ाई है। धूप की बदली दिशा, कान के ऊपर से निकली गर्म हवा या बस ये याद आ जाना कि अब तो कॉलेज से निकले भी 7 साल हो गए....दर्द की आदत सी पड़ गई है। आख़िरी बार कब सिर में दर्द नहीं था? अब तो गद्दे भी बेहतर खरीद लिए पीठ का दर्द क्यों नहीं जाता? दर्द और भी हैं, सबसे ज्यादा दर्द चिल्ला ना पाने का....अब रजाई छोड़ने में दिक्कत नहीं होती, नौकरी छोड़ने का जी नहीं करता. पता रहता है, हज़ारों हैं जो इस काम को तरस रहे हैं, समझ ये भी आता है कि काम दुश्मन नहीं है। अब गुस्सा भी ग़लत जगह निकलता है और वो भी महीने में कभी-कभी।। कोई पिच्चर नहीं चल रही है, 30 की तरफ जाते आदमी से कई बातें कह सकते है।।

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