लेख लिखे थे, वादों के
मेहंदी अभी भी काली थी ,
लाल श्याही थी माँथे पे
तो चुड़िया कहाँ निकाली थी;
वादियो मे सपने लिए
मुस्काने कई निराली थी ,
खुबसुरत हर महौल
कश्ती कई बेकिनारी थी;
हवा न उठी आँधी की
ना कोई निशानी थी ,
सैलाब आया जनून का
सब जगह तबाही थी;
लाल इश्क , लाल हुआ
लहु की ये बारिश थी,
बेफ्रिकी की अहमियत
अब समझ आ रही थी ।
तिप्पनी दो तीन करने से
कब तक तुम याद दिलाओगे,
26 / 11 हुआ ही था
इस बार कितने दिये जलाओगे ?
बेपरवाह बातोंसे जो इस तरह हो लेते हो ,
बात जब खुद पे हो, तो क्या तब ही मशाल जलाओगे ?
जाने हे जो गई है
कितनी कहानी अधूरी शुरुवात पा के हो गई है ,
सवाल पूछे गए है
गलती पछली ना दोहराई है ,
तुम लड़ते हो भाषा पे
क्या वो चीखे आज भी अनसुनाई है ?
भवर उठा है, आँधी से
ये हवा वही से आई है,
पहाड़ बनोगे तो बचोगे
वरना ये टीलो से कब घबराई है ?
घास पनाह दे साँपो को तो
कँटीली क्यो ना लगाओगे ,
पनाह जो माँगे ये मेहमान तो घाव क्यों ना लगाओगे?
उठो, खड़े हो , सोचे !
ये निति ना कोई राजनिति है ,
कहने को इतिहास होगा
कल ये ,
मगर किसी की आपबिति है ;
कब तक खामोश
बातो को झुकलाओगे ,
शाँति निति अपना कर
कब तक मुँह चुरूओगे ?
फलगाम , पुलवामा ,
कितने नाम और आएंगे
तुम आपस पे लड़ते हो,
सरहद तक क्या जाओगे ?
बाँत तो आँसुओ की है
कागजों पे क्या आएंगे ,
सवाल हजारो मन मे है
जुबाँ पे कैसे आएंगे,
गुज़ी है जो चीखे आज
वो कब तक याँदो मे आएंगे ,
आखिर मे एक तारिख बन
किंही पन्नो में खो जाएँगे ।
- पायल