आज फिर पूछा मैंने ,
केह क्या तुझे मंजूर है ?
ए खुदा खुल कर बोल दे.,
क्या लिखा तूने मेरे दस्तूर में ?
करवटे बदलता हूँ रात भर,
आँखें मीचते सुबह हो जाती है |
पलकें भारी सपनों के बोझ तले,
कसमोकस में ये दिन बीताती हैं |
रातें सुनसन, दिल वीरान;
ये सोचने को को है मन परेशान !
हर रोज कंधों पर आसाओं का बस्ता लेकर,
मैं फिर उस मोड़ पर जाता हूँ |
क्या है मरजी तेरे पूछने को ?.,
तेरे दर पे शीश झुकता हूँ |
कल तक जिस घर से चिढ़ता था ,
अब उस घर को मैं तरस जाता हूँ |
वो थपकी; वो लोरी; वो मां की परोसी हुई हलवा पूरी ;
सब खो कर मैं यहाँ आया हूँ |
सारे रिश्तों से मुह मोड़ आया हूँ,
जो झाकुन तो,
ये दर्पण भी क्या कुछ मुझसे यूं कहता है;
क्या पाने को क्या खोया तुने.,
और अब क्या खोने से डरता है ?
तुझ मुशफिर को गालिब कुछ यूं कहता है,.
लम्हों से बुनी इस जिंदगी का यही तो दस्तूर है,
हमें खुशियां कमानी जिनके लिये;
हमें रहना उन्हीं से दूर है....!!
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Alfaz-E-Dastoor
PoetryHey fam, after being writing story by all time here I am publishing a new form of my sentiments and feelings - A POETRY. This poetry is basically a small window of my homesickness. LOve it the same as my stories.