ज़िन्दगी भी कितनी अजीब है! कभी ये शहद सी मीठी लगती, तो कभी उस समंदर सी खारी। कभी पानी सा बेरंग, तो कभी इस शराब सी नशीली।
वैसे यदि आप भी कभी किसी समंदर किनारे, रेत पर नंगे पाव खड़े हो, तो ज़रा संभल कर खड़े होना। क्योंकि कौनसी लहर कब आपको अपने साथ बहा ले जाए, और फ़िर ले जाकर मेरे समान इस शराब के प्याले में आपको भी डुबो दे, कोई नहीं बता सकता।
आज भी जब मैं इस मुंबई शहर में, समंदर किनारे ग्यारहवीं मंज़िल पर बने अपने पेन्ट हाऊस के इस खुले से बरामदे में खड़े होकर उन लहरों को देखा करता हूँ, तो अक्सर वो लहरें मुझसे बस एक ही सवाल पूछा करती है कि बता आखिर कब तक तू यूँही अपने बदनसीबी का जश्न मनाता रहेगा? कब तक यूँही दुनिया के दिये थपेड़ों को अपने सीने पर लिये घूमता रहेगा? आखिर कब तक?
मगर उन सवालों का जवाब, ना कभी मैं दे पाया, और ना ही कभी मेरे ये शराब के प्याले!
वैसे जिस बाल्कनी में मैं उस वक़्त मौजूद था, वह
फूलों की खूबसूरत आकृतियों से सजी, काँच की एक पैरापेट वाल से घिरी हुई थी। सामने मरीन ड्राइव पर स्थित इमारतों की लाईटें उस अंधेरे में बेहद खूबसूरत नज़र आ रही थी। हाँ बस बीच बीच में वे ज़रा धुंधली सी हो जाया करती। पर जब अपनी आँखों पर से आँसुओं को मैं ज़रा पोछ लेता, तब जाकर वे नज़ारे भी ठीक तरीके से मुझसे नज़रें मिला पाती।इसी तरह गम के साये में डूबे, मैं उस रात एक के बाद एक पैग खत्म करता चला गया। और फ़िर जैसे ही उन नजारों की ओर देखते हुए मैने अपना आठवा ड्रिंक पूरा किया, तो सुरूर में डूबे मेरे कदम एकदम से लड़खड़ा गये। मैं खुद को संभाल नहीं पाया और फ़िर अगले ही पल सीधे फर्श पर जा गिरा। चारो ओर एक दम से अंधेरा छा गया। मगर थोड़ी देर बाद जब मैने आंखें खोली तो सामने का वो नज़ारा अब भी बिल्कुल उसी तरह टिमटिमा रहा था। थोड़ी देर यूँही मैं अधखुली सी अपनी आँखों से उस नज़ारे की ओर देखता रहा। मगर फ़िर जैसे, सारी की सारी रौशनी एक साथ धीरे से बुझने लगती, और फ़िर एक ही साथ वे जल भी उठती। फ़िर बुझ जाती और फ़िर एक ही साथ धीरे से वे जल उठती। और फ़िर कुछ देर बाद वे लाइटें पूरी तरीके से बुझ गई। बस अगर कुछ बची थी तो उन लहरों की वो आवाज़ें, जो अब भी मुझसे वही एक सवाल लगातार पूछे जा रही थी।