प्रेम का सामर्थ्य

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बर्फीले पहाड़ों को लाँघकर, घर की सीमा पार कर अखंड तपस्या करने को तैयार हो जाना - क्या इतना सामर्थ्य है प्रेम में ? इतना सामर्थ्य की प्रजापति दक्ष की पुत्री को श्मशान निवासी का भक्त बना दे!

आज अपना सब कुछ छोड़कर सती , अपने सब कुछ के पास आयी थी । शिव से विमुख,अपने पिता का आँगन उसको ना भाया। उसे तो अब सिर्फ उस योगी की सुध थी , जिसका ना कोई ठौर था ना ठिकाना।

जैसे कोई सागर अपनी नदी को स्वयं तक बुला लेता है, वैसे ही एक बेल पत्र ने सती को स्वर्ण आभूषण से दूर, कैलाश बुला लिया । सती का देह भले ही पहली बार कैलाश आया हो , पर उसकी आत्मा , कैलाश कण कण से परिचित थी। उसी जानी पहचानी धरती पर पग रखते ही सती के नेत्रों ने अपने जीवन को साक्षात मूर्तिमान देखा - शिव

सजल नेत्रों से सती ने देर तक शिव को देखा और समाधिस्थ शिव ने हल्के से नेत्र खोले। वे जानते थे कि उनकी शक्ति उनके समक्ष हैं, पर नियति के विरुद्ध कोई नहीं जा सकता, स्वयं शिव भी नहीं! प्रेम के सारे अश्रु छुपाकर,
शिव ने गंभीरता से बोला , "आपका यहा आना उचित नहीं है, दक्षायनी"।

(दक्षायनी- अर्थात दक्ष की पुत्री।)

माया बंधन की याद दिला कर भावना में भ्रमित करना तो इश्वर का अधिकार है । उस बंधन से परे उठकर अस्तित्व के मूल तक जाना ,भक्त का कर्म ।

सती ने साहस समेटे बोला, "कैलाश तो उचित- अनुचित से परे है महादेव! फिर आपके दर्शन को आना कैसे अनुचित हो सकता है ?"

"मेरे दर्शन आपके राज्य में वर्जित है , देवी। "

"जब सोते जागते, मन की आंखों से आपके ही दर्शन हो, तो क्या प्रजापति, जीवन को भी वर्जित कर देंगे?"

"प्रश्न चिन्ह लगाकर उत्तर नहीं दिए जाते हैं । अपने परिवार को छोड़कर व्यर्थ मुझ औघड़ के पास आने का कारण?"

"अकारण कृपा करने वाले मुझसे कारण पूछते हैं? मैं किसी को छोड़कर नहीं आयी हूं । असल में , जब से मेरे जीवन में आपने प्रवेश किया है - मेरे मन, रुचि - अरुचि, घर - परिवार , सबने मुझे छोड़ दिया है ।
जहां शिव का वास हो , वहां किसी और की क्या आवश्यकता?"

"आपको लौट जाना चाहिए। नियति का नियम है , आपके इस जन्म में - इस वैरागी का साथ नहीं लिखा है ।"

"अगर इस जन्म में सम्भव नहीं है तो मैं प्रत्येक जन्म प्रतीक्षा करने को तत्पर हूं! हर रूप , हर अवस्था में । आपके लिए वैराग्य धारण करने को , ब्रह्मचारिणी बनने को तैयार हूं!"

"सत्य को स्वीकारो सती।"

"सती का एकमात्र सत्य आप हैं शिव!"

सती के प्रेम हट के आगे त्रिपुरारि को , बिना कोई तर्क दिए , झुकना पड़ गया। प्रेम में तर्क का स्थान नहीं होता और जहा तर्क होता है , वहां प्रेम के लिए स्थान कम पड़ जाता है।
फिर, प्रेम में होता भी अनंत सामर्थ्य है। इतना की बर्फीले पहाड़ों को लाँघकर, घर की सीमा पार कर अखंड तपस्या कर श्मशान निवासी का वरण करवा दे ।

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