ब्रजभूमि! संसार का सबसे प्रेम पूर्ण स्थान। वह धरती जहा की धूल में भी स्वर्ग से अधिक सुख था । ब्रजभूमि का हृदय कहलाता था वृंदावन । वृंदावन अर्थात स्वयं प्रेम। यही तो वो स्थान है जहा , मायावी अपनी माया को भूल, सहर्ष भक्तों को समर्पित हो जाता था । प्रत्येक पूर्णिमा की रात्रि कृष्ण अपनी प्राणेश्वरी राधिका और राधिका की प्रेम-विस्तार स्वरूप गोपियों के साथ रास रचते थे । कहते है कि जब प्रेम , भक्ति और समर्पण अपने शिखर पर पहुच जाता है तो वो रास हो जाता है। चरण अपनी सुध भूलकर, केवल प्रेम की धुन पर झूमने लगते है । साकार ब्रह्म को मानने वाले के लिए तो मोक्ष से भी बढ़कर रास है! पर ये कथा बरसाने से कोसों दूर की है । ये कथा है कैलाश की।
कैलाश या यू कहूँ, अनंत आकाश सा शांत और प्रकृति सा जिवंत । धरती का वह स्थान जो सांसारिकता की सभी सीमाओं से परे है । यह वही भूमि थी जहा ब्रह्मांड की सबसे अनुपम प्रेम कथा रची और जी गयी थी ।
गौरी शंकर की अगाध प्रेम की गाथा।
प्रतिदिन की भांति, आज भी माँ गौरा कैलाश की सबसे सुंदर गुफा-अमरनाथ-में बैठीं; अपने परमेश्वर की अराधना में लगी थी-
"नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्॥
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम्॥"
" गौरा!" - अचानक ये स्वर माता के कानों में पड़े , तो मंद मुस्कान के साथ, बिना नेत्र खोले ही बोल दिया,
" कभी पूजा समाप्त होने ही नहीं देते! मंत्र खत्म होने से पहले ही दर्शन दे देते है , भोलेनाथ!"महादेव मुस्काते हुए सहज ही बोले , " इसीलिए तो भोला कहते है सब मुझे !"
माता के अधर पर मुस्कान तो आयी, किन्तु वह
शीघ्र ही एक गंभीर मुद्रा में परिवर्तित हो गयी ।
महादेव तुरंत समझ गए। समझते भी ना कैसे? आखिर गौरा तो उनकी अर्धांगिनी है । दोनों के मध्य कुछ नहीं छुपा, आखिर कोई स्वयं से ही असत्य कैसे सकता है?
महादेव क्षण भर में समझ गए अपनी प्रेयसी के मन में उठते विचार और उन्हें स्मरण आया वो समय!****
उस रोज बरसाने में एक डर सा छा गया था , प्रत्येक गोपी के मन में । यह भय था उस चोर का जो मटकी चुरा, माखन खा जाता था । वह वाकपुट मायावी नंदराज का बेटा जो अपनी काली गहरी आंखों से छल जाता था।
कमर की करघा पर बंसी बांध , यदि वो छबीला केवल माखन चुराता तो उचित भी था। पर ये ग्वाला तो माखन के संग हृदय भी चुराता था !! गोपियों को प्रेम के डोर से ऐसे बांधता था कि मटकी टूटे तो क्रोध , ना टूटे तो पीड़ा!
हर क्षण , ब्रजभूमि एक ही नाम रटती थी- "कृष्ण! कृष्ण!"।
किन्तु अब एक मौन सा छा गया था | गोपियां अनायास ही रो पड़ती और अपने जल से भरे मटके स्वयं ही धरा पर फेंक देती । ऐसा नहीं कि ब्रिज भूमि ने कृष्ण नाम जपन छोड़ दिया हो या मैया ने माखन बनाना।
आज भी ललिता के कानों में बंसी की धुन गूंजती थी । पर अब , माखन खाने वाला , मुरली बजाने वाला , कहीं दूर चला गया था । मन से दूर कदापि नहीं , तन से थोड़ा , थोड़ा दूर ।
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Kailash Raas
FantasiEver wondered what it is to hear the tunes of love amidst the trumpet of destruction? Ever wondered what happens when the peak of austerity experiences playfullness? Ever wondered what happens when Tandav meets Raas? Well, this book is a result o...