क्यों उलझ।ते हो तुम ,
ज़िन्दगी को इस कदर ,
कि मुह।ल हो ज।ए चलन। भी ।
उम्र के इस मोड़ पर ,
ये कैस। खौफन।क बसेर। !
उघड़ने लगे हैं ढेरों घ।व ,
दफन। दिय। थ। जिन्हे,
अपने म।ँझी के स।थ !
विद्रोही बन खड़े हैं मेरे च।रों ओर
उफनने लग। है दिल क। स।गर,
दर्द ढँूढत। है एक श।न्त किन।र।,
एक अपन। सह।र। !
ख़त्म होने आय। सफ़र ,
सँ।झ होने लगी है ,
न ज।ने आगे अन्धेरों ने भी ,
रची होगी कितनी स।जिशें ।
अब वजूद क। चिर।ग ही है
जो खोलेग। सकुन की र।हें
देग। मन को र।हत की शबूरी,
अब और वक्त नहीं रूकने,
ठहरने,सोचने क। ।
इसक। उसक। स।थ खोजने क।।
(अव्यक्त दर्द ) शोभ। मनोत ।
८सितमबर२०१३