मुक्ति

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वो फिर ग्रीन टी बनाकर ले आए थे।

प्रमिला के लिए चाय का मग बिस्तर के बगलवाली मेज़ पर रखकर वे खिड़कियों की ओर मुड़ गए, पर्दे हटाने के लिए। ये पर्दे प्रमिला की पसंद के थे। हरे-नीले रंगों की छींट सफेद-जैसे दिखने वाले रंग पर।

पिछली दीवाली पर आखिरी बार धुले थे ये पर्दे। पर्दों के हटते ही नवंबर की धूप का एक कोना फर्श पर छितरा गया। खिड़कियों पर लगे ग्रिल की चौकोर आकृतियाँ ज़मीन पर बड़ी सुलझी हुई लग रही थीं। परछाई का एक-एक हिस्सा जैसे बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे उकेरा गया हो। उन्होंने अपनी कुर्सी बिस्तर के करीब खींच ली।

प्रमिला की आँखें बंद थीं। धीमी-धीमी चलती साँसों से लगता था जैसे गहरी नींद में हो। अचानक आँखें खोलकर वो पंखे की ओर देख रही थी। आँखों के नीचे गहरे धब्बे ज़रूर थे लेकिन पुतलियों की चमक बिल्कुल वैसी ही थी जैसी उन्होंने बयालीस साल पहले देखी थी, शादी के बाद पहली बार। प्रमिला के साधारण से चेहरे की वो असाधारण आँखें! वो और नहीं सोचना चाहते थे, भावुक होने के लिए वक्त कहाँ था। अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ाकर उन्होंने प्रमिला की बाँह को छू लिया।

"चाय पियोगी ना?"

"हाँ, लेकिन ये चाय नहीं। दादी वाली चाय। वो ले आइए।"

"डॉक्टर ने यही चाय पीने के लिए कहा है प्रमिला। तुम्हारी तबीयत जल्दी ठीक हो जाएगी इससे।"

तबीयत का ज़िक्र आते ही प्रमिला उठकर बैठ गई। अब उन आँखों से उतरता हुआ गुस्सा पूरे चेहरे पर फैल गया। उसकी भौंहों के तनाव की लंबाई देखकर वो समझ जाते हैं कि गुस्से की तीव्रता कितनी है। अभी भौंहें इतनी ही तनी थीं कि आँखों का सिकुड़ना पता नहीं चल रहा था।

"तबीयत ठीक है। रामखेलावन की जोरू दूध और चीनी चुरा ले गई है। अब साड़ी चुराएगी।"

"ऐसी बात नहीं है प्रमिला। वाकई तुम्हें डॉक्टर ने यही चाय पीने की सलाह दी है। इसे ग्रीन टी कहते हैं।"

"तबीयत ठीक है। दूध चीनी चुराई है, अब साड़ी चुराएगी।" बुदबुदाते हुए प्रमिला फिर तकिए पर लुढ़क गई। चाय का मग वहीं पड़ा रहा। अनछुआ। गहरे नीले रंग का ये मग प्रमिला ही लाई थी सरोजिनीनगर से। दो साल पहले तक ये कुर्सी, सुबह का अख़बार, चाय का यही मग और प्रमिला का साथ उनकी सुबह के अभिन्न हिस्सा थे।

नीला स्कार्फ़Where stories live. Discover now