वो खड़ी थी बीच बाज़ार
करके कुछ सोलह सृंगार,
चेहरे पर हसी थी उसके
अंदर से थी वो लाचार।मजबूर थी वो एक अकेली
साथ थी उसकी कुछ सहेली,
जिस्म अपना वो बेच रही थी
बाज़ार में थी वो नई नवेली।आंखें थी उसपे हजार
बेचारी बेबस लाचार,
खड़ी वहां थी आंख झुकाए
जब भेड़िए निकले करने शिकार।एक भेड़िया आया पास
पूछा तुझमें क्या है खास,
बोली में नयी हूं यहां
बोला वो आ मेरे साथ।साथ गई वो शुरू खेल हुआ
जिस्म का जिस्म से मेल बोहोत हुआ,
आंसू आए ना दर्द के मारे
रोना उसका शरम का हुआ।खेल खत्म हुआ कुछ ही देर में
भेड़िया उठा और पैसे फेंके,
उसने उठाए और चुप सी थी वो
रोयी खूब ज़मीन पर रहकर।जिसको तुमने वैश्य कहा
वो मासूम को क्या पता,
क्यों थी वो और क्या मकसद था
क्यों हुआ ये खेल बुरा।
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बाज़ार
PoetryA poem about a prostitute's point of view on how she feels about the world around her.