हमें भी समझना

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हाँ फर्क किसे पड़ता है,
हम हारे या जीते।
पहचान कुछ दिलों में
है बाकी, है काफी।
चंद बाते है उनकी,
कुछ किस्से है हमारे।
हम बाकी हैं भी क्या!
कहीं दिखते नहीं इशारे।

जज्बात बयाँ करने में,
नाकाबिल हम हुए।
हालात समझ सके हम,
उस काबिल कब हुए।
हो रोज उनसे गुफ्तगू,
ये चाहत क्या हुई
इक चाहत के चलते,
खुद रूसवा हम हुए।

हाँ पता है हमें,कुछ
नाराजगी तो होगी।
अलग-ढ़लग है दुनियाँ
कुछ बेबसी तो होगी।
हम चाहते हैं सुनना
खुद जानते नही क्या!
पर दिक्कतें हैं, हमें
पहचानते नहीं है क्या!

कुछ राज तुम भी खोलें।
कुछ साज हम सुनाएँ।
क्यों काज हो ही ऐसे कि,
कोई बात हम छिपाएँ।
हाँ समझ ना सके हम तो,
कुछ धैर्य तुम भी धरना।
जो बात हो तुम्हारी,
कहके, हमें भी समझना।

-Rishabh kumar

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