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क्या कुछ ज़्यादा माँग लिया?
सिर्फ़ यही तो कहा था कि हमसे भी बात कर लो,
उसमें क्या ग़लत बोल दिया?

वो भी क्या दिन थे, जब
हम एक-दूसरे से अलग न होने की क़समें खाते थे,
लेकिन अब...

वो भी क्या समय था, जब
एक-दूसरे से अलग नहीं हो पाते थे,
हर बात एक-दूसरे को बताते थे,
लेकिन अब...

अब तो
कब मिलना होगा, ये भी नहीं बता सकते,
एक-दूसरे से कुछ कह भी नहीं सकते।

मैंने तुमसे उन्हें छोड़ने को नहीं कहा,
न ही तुमसे तुम्हारी जान माँगी है।
बस...
थोड़ा वक़्त  
और साथ माँगा है,

वो विश्वास माँगा है जो तुम्हारे पुराने रूप पर था।

जो कह रही हूँ, वो तुम्हारे भले के लिए ही है।

तुम्हारे लिए सबसे लड़ जाती हूँ,
पता नहीं कितनों का साथ छोड़ चुकी हूँ,
जो दिल के क़रीब थे,
ये सोचकर कि शायद तुम काफ़ी हो।

कभी-कभी तो लगता है सब छोड़ दूँ,
तुम्हें भी छोड़ दूँ...
लेकिन...

लेकिन वो अदृश्य रिश्ते का लाल धागा
हमेशा उम्मीद जगा देता है।

फिर कोशिश करूँगी तुम्हें सही रास्ता दिखाने की,
करती रहूँगी, जब तक कर सकती हूँ।
करती रहूँगी...




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A poem I wrote for the friends I lost ......those whom  I still can't let go off 

"ITNE PAAS AA KR WO SAMJHA GYE KI DUR KAISE JATE HAI"






Author Ren.v

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⏰ Last updated: 5 days ago ⏰

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