कपड़ा भी भेष बदलता है

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ढांपता है देता है सुक़ून अक्सर ,

तो कभी नुमाइश-ए-ज़िस्म भी करता है ।

कपड़ा तो वही है ,

पास बे-क़द्रों के पास हो तो अपने नंगेपन से डरता है ॥


मुर्दा मज़ारों ,

इबादत-ख़ानों की मरमरी दीवारों ,

समाधी के पत्थरों , अरे !!

चूमने की तुम्हें तो , रवायत है यहां ,

रब के बनाये ज़िन्दा किसी शाहकार को चूम लें तो ,

क्यूं हाहाकार होता है ॥


कपड़ा सही है , हिफ़ाज़त के लिये हो जब तक़ ,

गलत हो जाता है , गुलामी की वज़ह बनकर ।

कपड़ा कभी इठलाता है

तिरंगे से लगकर

तो कहीं कुछ तोड़ जाता है

शहीद का कफ़न बन कर ॥


कपड़ा

कभी पगड़ी से लग

इज़्ज़त और रुआब बन जाता

तो कभी

बेबस के ज़िस्म से नुचते वक़्त

बुरा एक ख़्वाब

बन जाता है ॥


कपड़ा मासूम है

अपना है जब तक

बदल लेता है वो भी भेष

ऐयारों के हाथों मे पड़कर


कहने वाले तो

ये भी कहते हैं कि

" गुनाह होता नुमाया होना ज़िस्म का ग़र ,

तो ख़ुदा भी छुपा कर रख़ता

औरत को यूं

ज़लवाग़र ना करता"

ये कहते अक्सर भूल जाते हैं लोग ,

बात ग़ैरों की हो तो , बड़ा मज़ा

बात अपने पे आये तो

तिलमिलाता

इंसान ,

इतना मुनाफ़िक़ ** क्यूं है ॥


ज़िस्म तो तब भी

वही होता है ना

पर सूरतें बदल जाती है शायद

बुत तो तब भी

वही होता है ना

पर माटी बदल जाती है शायद ॥

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**मुनाफ़िक़ = दोगला , पाखंडी . hypocrite

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⏰ पिछला अद्यतन: Aug 06, 2015 ⏰

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