एक

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संध्या का समय था। जानवरों के झुंड खेत-खलिहानो से पेट की अग्नि शांत करके लौट रहे थे, जानवरों के खुरों के कारण रास्ते की जमी हुई मिट्टी भी छोटे-छोटे कणों में परिवर्तित हो गयी थी। घर पहुंचने की जल्दी में तीव्र गति से चलते जानवर धूल उड़ाते जाते थे, इस तरह पूरे रास्ते पर धूल के बादल नजर आ रहे थे, कुछ समय के पश्चात ये बादल विलुप्त हो गए, और अब अंधकार की चादर ने सारे संसार को अपने अंदर समेट लिया था।

उस समय अक्सर सामाजिक स्तर में निम्न वर्ग के लोगों के घर गांव के बाहरी ओर हुआ करते थे। गांव में घुसते ही इसी रास्ते के एक ओर हरी का घर था, मिट्टी से बने घर के चारो ओर मिट्टी की ही दीवार थी जिसकी ऊंचाई चार फीट और चौड़ाई एक फीट से कुछ अधिक रही होगी। हरी इसी दीवार पर बैठा, रास्ते को निरंतर ताक रहा था, वैसे उसके लिए यह कोई नया दृश्य नहीं था, परंतु उस समय उसका सारा ध्यान रास्ते पर ही था। रास्ते पर होती प्रत्येक घटना को वह अपने जीवन से जोड़ कर देख रहा था, रास्ते पर छाए हुए धूल के बादल उसे अपने जीवन में आए हुए संकट के बादल लग रहे थे, पर जैसे-जैसे अंधेरा बढ़ता जाता उसे अपना भविष्य उतना ही अंधकारमय लगता। इस तरह भविष्य में आने वाले संकट के बारे में सोच-सोच कर उसका बुरा हाल था, किसी अन्जान भय का आभास उसे निरन्तर सता रहा था।

घर के अंदर से आती झुनिया के कराहने की आवाज जब हरी के कानों में पड़ी तब उसकी तंद्रा भंग हुई और वह उठकर झुनिया के पास पहुंचा। झुनिया के गर्भ का आखिरी माह शुरू हो चुका था, पर वह शारीरिक रुप से बेहद कमजोर थी। हरी ने अन्दर आकर पूछा-
'क्या हुआ? तबियत ठीक नहीं है?'

झुनिया कराहते हुए बोली-
'अब दर्द सहन नहीं हो रहा है।'

'कहां है दर्द?'

'पेट में नाभी के आस-पास।'

हरी बोला- 'रूको मै ताई को बुला लाता हूं।'

झुनिया ने कराहते हुए ही बांया हाथ हिलाकर जाने को मना कर दिया और फिर हाथ से ही अपने पास बैठने का इशारा करती हुई बोली-
'यहां मेरे पास आकर बैठो, क्या हाल बना रखा है अपना ?'
फिर प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना बोली-
'मै भी कितनी मूर्ख हूं, खुद आपका ध्यान नहीं रखती और उल्टा आपको दोष देने लगी।'

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