तीन

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गिरधारी सिंह की दो मंज़िला हवेली दूर से ही नज़र आती थी। सफेद रंग की इस हवेली में बैठक के अलावा बारह बड़े-बड़े और हवादार कमरे थे। बैठक कमरों से अपेक्षाकृत बड़ी थी, गिरधारी का अधिकांश समय इसी बैठक में ही बीतता था। वे रात्रि का भोजन अक्सर यहीं किया करते थे। आज भी गिरधारी पलंग पर बिछी सफेद चादर पर, अपने चिर-परिचित परिधानों में आँखें बंद करके दीवार से टिक कर बैठे थे। गिरधारी का सेवक भम्मी वहीं नीचे जमीन पर बैठा था, हरी और रघू को आता देखकर उसे कारण समझने में देर न लगी, तुरंत अपने मालिक को हरी के ऊपर पुराने उधार के बकाया राशि की याद दिला दी, जो उसने रघू की शादी में लिया था।

हरी और रघू दोनों ने हाथ जोड़कर गिरधारी सिंह को प्रणाम किया और फिर वहीं सामने जमीन पर बैठ गए। हरी को देखकर गिरधारी बोले-
'हरी तेरी पत्नि की मृत्यु के बारे में सुनकर बड़ा दुःख हुआ भाई, बहुत ही मेहनती और अच्छे स्वभाव वाली थी। खैर जो होना था सो तो हो गया अब तू अपना और बच्चे का ख्याल रख।' फिर रघू से बोले,
'तेरी शादी में तेरे भाई और भौजी ने कोई कमी न होने दी थी अब तेरा समय आया है, विपत्ति के समय में भाई का साथ देना।'

'जी मालिक, मै हमेशा भइया का साथ दूंगा।'

'बोलो कैसे आना हुआ?' गिरधारी ने पूछा।

'मालिक झुनिया की तेरहवीं के भोज में थोड़ी सहायता कर देते, हमारा सहारा तो बस आप ही हो।' हरी ने हाथ जोड़कर विनती की।

गिरधारी कुछ कह पाते उस से पहले ही भम्मी बोल पड़ा, 'पुराना कर्ज़ तो चुकाया नही जाता, न जाने दोबारा मांगने की हिम्मत कैसे हो जाती है। पहले पुराना कर्ज़......' भम्मी अपने मालिक की चाटुकारिता का कोई भी मौका खोना नही चाहता था, पर गिरधारी ने हाथ से इशारा करके उसे रोक दिया और वह मन मसोसकर रह गया।

गिरधारी ने हरी को भरोसा दिलाया की वे इसकी हर संभव सहायता करेंगे। यह बात तो सब जानते हैं की गिरधारी सहृदय तो थे पर लेन-देन के भी बड़े पक्के थे, वे थोड़ा गंभीर होकर बोले-
'हरी तेरा पुराना हिसाब भी बाकी है, तुझे जितना धन चाहिए ले जाना मै जानता हूँ तू सब वापस कर देगा, तुझसे इस बार सूद भी न लूंगा पर कुछ तो होगा जो तू गिरवी रख सके।'

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⏰ पिछला अद्यतन: Nov 07, 2015 ⏰

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