लन्दन से बर्मिंघम आए हुए कुछ दिन ही हुए थे। बर्मिंघम में मेरे एक अंग्रेज़ साथी एडम भारतीय संगीत में थोड़ी बहुत रुचि रखते थे। पण्डित रविशंकर को उन्होने सुन रखा था। आशा जी के कुछ एल्बम भी उन्होने सुने थे। एक दिन बातचीत में मैने उनसे उस्ताद ज़ाकिर हुसैन का ज़िक्र किया। मैने उनसे कहा कि आप ज़ाकिर हुसैन को ज़रूर सुने, यकीनन आप कह उठेंगे, 'वाह उस्ताद'। कुछ दिनों बाद ही उनका जन्मदिन था। मैंने सोचा कि उन्हें भेंट में उस्ताद ज़ाकिर हुसैन का एक सीडी दिया जाए। बर्मिंघम शहर में एक इलाका है, स्पार्कहिल। हालांकि वहाँ न तो कोई स्पार्क है और न ही कोई हिल। यदि कुछ है तो दक्षिण एशियाई मूल के निवासियों की बड़ी तादाद, मूलतः पाकिस्तानी मूल के लोगों की। सुन रखा था कि भारतीय फिल्मों और भारतीय संगीत का क्रेज़ भारतीयों से अधिक पाकिस्तानियों में है। सो सीडी की तलाश में मैं स्पार्कहिल पहुंचा। मिठाइयों, कपड़ों और जेवरात की दुकानों की कतार में एक बड़ी सी म्यूज़िक शॉप भी दिखाई दी, नाम था 'म्युज़िक महल' या ऐसा ही कुछ। दुकान के भीतर जाकर मैंने रिसेप्शन पर खड़े नौजवान से कहा, "उस्ताद ज़ाकिर हुसैन के कुछ सीडी दिखाएँ"
नौजवान ने शायद ज़ाकिर हुसैन का नाम न सुन रखा था। उसने एक और नौजवान को आवाज़ लगाई। दूसरे नौजवान ने आते ही कहा, "ज़ाकिर हुसैन! नाम तो सुन रखा है, क्या गाता है? ग़ज़ल या क़व्वाली?"
मैं बिना कुछ कहे ही दुकान से बाहर निकल आया। कुछ दूरी पर एक और दुकान थी, 'संगीत'। वहाँ मुझे एक बुज़ुर्ग व्यक्ति बैठे हुए दिखाई दिए। मुझे लगा उन्हें तो अवश्य भारतीय शास्त्रीय वादकों के बारे में ज्ञान होगा।
"ज़ाकिर हुसैन को कौन सुनता है यहाँ। यह तो रैप और भांगड़ा सुनने वालों की जमात है। मेहदी हसन साहब का यह सीडी एक साल से पड़ा है, आज तक नहीं बिका, हाँ दलेर मेहँदी दर्जनों बिक जाते हैं" ब्रिटेन की दक्षिण एशियाई मूल की नौजवान पीढ़ी से उन्होंने कुछ इस तरह मेरा परिचय कराया।
संगीत का मेरा ज्ञान बड़ा दुर्बल है। वह जिसे 'वॉन गॉफस इअर्स फॉर म्यूज़िक' कहते हैं, वैसा ही कुछ हाल है मेरे कानों का भी संगीत के मामले में, 'तान बधिर'। मगर मुझे इतना समझ आता है कि अच्छा संगीत वह होता है जो आत्मा को झंकृत कर दे, और अच्छा होने के लिए उसका शास्त्रीय होना अनिवार्य नहीं है। वैसे भी कला के लिए कोई पाबंदियां नहीं होनी चाहियें। कला पाबंदियों से परे होनी चाहिए। कुछ वर्षों पहले उस्ताद गुलाम मुस्तफा खान को एक टीवी शो पर देख रहा था। उनसे प्रश्न किया गया कि क्या एक अच्छा गायक होने के लिए शास्त्रीय संगीत का ज्ञान आवश्यक है, तो उन्होंने बड़े सरल शब्दों में कहा, संगीत को शास्त्रीय, सुगम, पॉप, रॉक आदि में बांट कर उससे बड़ा अन्याय हो रहा है, संगीत तो बस वह है जो रूह को सुकून दे, और जो रूह को बेचैन कर दे वह संगीत नहीं शोर है।
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Letter From London
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