......... और अँधेरा होते हि मैंने ख़ुद को एक बंजर रेगिस्तान में पाया। पैरो पर खड़े होते हि ज़मीन ख़िसकने लगी, वो रेत थी जो मेरे भार की वज़ह से ख़िसकी जा रहीं थीं। रेगिस्तान की गर्म हवाएँ मेरी आँखों को कुछ इस तरह चीर के जा रहीं थीं मानो मेरी आँखों में कोई तूफ़ान सा दिख गया हो, मन की अशांति रेगिस्तान की शांति को भी भंग किये दे रहीं थी। एक तऱफ किनारा ढूँढने कि चिंता सताए जा रही थी तो दुसरी तरफ़ जुबाँ सूखी पड़ चुकी थी पलकें अब बंद होना चाह रहीं थीं, सुरज कि ग़र्मी किसी गोली की तरह तन को छल्ली किये दे रहीं थीं। ऐसा लग रहा था कि दुनियाँ भर की सारी तकलीफ़े किसी ने मेरे ही सर पर लाद दी हो, और बार-बार तेज़ चलने को कह रहा हो। लेकिन मैं उस भार को ज़्यादा देर तक सँभाल न पाया। पैरों की रफ़्तार कम होते-होते दिल की धड़कन बढ़ने लगी, और मैं बेहोश हो गया। पलकों पर जैसे किसी ने ताला लगा दिया हो। ग़र्म रेगिस्तान के असहायता के समंदर में शायद ही कोई डूबा होगा।
कहते है दिल में अगर कोई दुःख का मैल हो तो उसे रोकर धो देना चाहिए, यूँ तो मैं हर दुसरी बात पर रो दिया करता था। लेकिन ज़िंदगी में विकल्प के ना होने से, मेरे लिए रोना भी इतना आसान नहीं था। आँसुओ सहित मेरी तो जैसे सारी भावनाएँ भी रेगिस्तान की नमी की तरह भॉंप बनकर उड़ चुकी थीं। ढ़लती शाम के भरोसे ख़ुद को छोड़कर मैंने आशा से मुँह मोड़ लिया। रेगिस्तान की ग़र्म ज़मीन वाक़ई में अंदर से बहुत नर्म थीं। सुकून का कोई चेहरा नहीं होता, नहीं तो मेरे हाथों में अभी भी इतनी जान थी कि मैं उसे कोरे कागज़ पे उतार सकूँ।थोड़े वक़्त बाद हवाएँ ठंडी हो गयी, नमी दोबारा पलकों को सहला रहीं थीं। आँखें खुली, लाल आसमां अब काली सुनहरी चादर ओढ़ चुका था। जिसमें से चाँद मुझे एक छेद से झांक रहा था, लगा उठने को कह रहा हो, मैं उठा और चल पड़ा ( हर एक के जीवन में एक वक़्त ऐसा ज़रूर आता है जब सब कुछ स्थिर हो जाता है। और उसे लगता है कि जीवन की परिस्थितियाँ अब अनुकूलता के दरवाज़े से होकर गुजरेंगी, लेक़िन जीवन में स्थिरता मौसम के जैसे होती हैं, जिसे एक निर्धारित अंतराल के बाद जाना ही होता है। )लगा की मौसम अब मेरे अनुकूल हो चुका है, लेकिन अनुकूलता का प्रमाण तो विज्ञान भी नहीं दे सकता मैं तो फिर भी एक इंसान हूँ!! इन्हीं विचारों से जूझ ही रहा था कि हवा की बढ़ती हुई सरसराहट कानों में कुछ खुसफुसा सा गयीं, मैं समझ न पाया। नज़रें उठाके देखा तो सामने एक रेतीला तूफ़ान बढ़ा चला आ रहा था...............
मेरे शब्द :- जीवन की चुनौतियों का सतत प्रयास ही हमें प्रयास में लाना होता हैं। परिस्थितिया चाहें अनुकूल हो या ,न हो प्रयत्नशीलता और चाह की धारा ही हम सब को इस रेगिस्तान से बाहर निकाल सकती हैं।
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Desert : the life
مغامرةAn emotionally cared man gets into the deep thinking and sleeps off and start dreaming his life in a very realistic and poetic manner, as he gets stuck in the desert with worst conditions and the journey begins with the search of water. he describ...