अंतिम-दांव

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पांडव-ज्येष्ठ युधिष्ठिर पर इस समय धर्म संकट आ पड़ा था। नियमानुसार वे इस खेल के पूर्ण होने तक इसको न तो छोड़ सकते थे और न ही अपने स्थान से उठ सकते थे। इतिहास साक्षी है कि जब भी किसी मनुष्य के सामने धर्मसंकट की घड़ी आई है, वह उचित निर्णय लेने में सदा विफल ही रहा है। राम जैसे धर्मपरायण एवं मर्यादावान व्यक्ति भी राजधर्म और पतिधर्म में उलझकर उचित निर्णय न ले पाए और कुछ लोगों के कहने मात्र पर ही एक पवित्र, निर्दोष और पतिव्रता नारी का त्याग कर दिया। पुरुषों के अहंकार के कारण महिलाओं का सदैव ही शोषण हुआ है। आज भी कुछ ऐसा ही होने जा रहा था। परंतु अब जो घटित होने जा रहा था वह अतिआवश्यक भी था क्यूंकि यहीं से युग-परिवर्तन और नव-निर्माण की नींव रखी जाने वाली थी और इसकी तैयारी विधाता ने पहले से ही कर रखी थी। कदाचित ईश्वर ने इस कार्य के लिए भी एक स्त्री का बलिदान ही उचित समझा।

द्यूत सभा में सन्नाटा छाया हुआ था। युधिष्ठिर अपनी सारी धन-संपत्ति, साम्राज्य, अपने चारों भाइयों और यहाँ तक कि खुद को भी चौसर में हार चुके थे। सभा में उपस्थित सभी सभागणों को यही प्रतीत हो रहा था कि युधिष्ठिर के पास दांव पर लगाने के लिए अब कुछ नहीं बचा, संभवतः अब इस खेल को यहीं समाप्त कर दिया जाएगा। जैसे ही भीष्म खेल-समाप्ति कि घोषणा करने के लिए उठे वैसे ही युधिष्ठिर ने उन्हें रोक दिया।

"ठहरिये पितामह! क्षमा कीजिये, किन्तु अभी इस खेल को समाप्त नहीं किया जा सकता। मैंने प्रण लिया था कि जब तक अपना सर्वस्व न हार जाऊँ तब तक द्यूत-क्रीड़ा से प्रस्थान नहीं करूँगा। अगर मैंने ऐसा किया तो यह खेल के नियमों के विरुद्ध होगा।"

"परंतु पुत्र, अब तुम्हारे पास दांव पर लगाने के लिए अब बचा ही क्या है? यह खेल तो अब समाप्त हो ही चुका है। अतः अब इसकी समाप्ति की घोषणा कर देना ही उचित होगा।"

शकुनि अत्यंत ही कुटिल और प्रपंची था। वह परिस्तिथियों को भाँपकर भविष्य की योजनाओं और निर्णयों को इस तरह ढाल देता कि उसका कार्य भी सिद्ध हो जाए और कोई प्रश्न भी न उठा सके। अपनी तीव्र बुद्धि का प्रयोग करके वह धर्म के नाम पर अधर्म किया करता। उसने फिर अपनी चाल चल दी।

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⏰ पिछला अद्यतन: May 18, 2020 ⏰

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