|| मुसाफिर कल भी मुसाफिर था ||

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     चल रहा मरुभूमि में निरंतर,
        मैं एक यात्री हूँ।
वो यात्री जो आरम्भ से अज्ञात है,
और ना ही अंत का उसे ज्ञान है।
मगर चल रहा हूँ अथक हर दफा,
एक बेहतर मंज़िल की तलाश में।
      सफर की तकलीफ को,
धूप पे मढ़ते हुए चल रहा हूँ मैं।
      कदाचित भूल चुका हूँ,
   किये सफर मैंने ही चुना था।
मैंने ही चुना था ये भयावह अकेलापन,
और ये ऊष्मा का प्रहार भी मेरा ही चयन था।
    हर बार रुक कर सोचता हूँ,

कि बहुत हुआ, अब इसी मोड़ को घर बनाया जाए।
परन्तु फिर एक बार चल पड़ता हूँ,
एक नए मोड़ की खोज में।
मगर वो मोड़ नही आता,

बस आती है एक और मंज़िल।
        मंज़िल दर मंज़िल
संभवतः आसमान छूना चाहता हूँ।
और भूल जाता हूँ कि माटी ही सत्य है,
और वो आसमान बस एक भ्रम है।
                                     -Extract from my        
                                     2016 poetic collection

बस आती है एक और मंज़िल।        मंज़िल दर मंज़िलसंभवतः आसमान छूना चाहता हूँ।और भूल जाता हूँ कि माटी ही सत्य है,और वो आसमान बस एक भ्रम है।                                     -Extract from my                                              2016 poetic ...

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