बदलते दौर कि आपबीती

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जिंदगी से जिंदगी के फासले बढ़ते गए
हर कोई बस मौन साधे धुन में अपने चल दिया

जिंदगी कि लालसा हर कोई जब है पालता

 फिर किसी कि जिंदगी में दर्द क्यों है मांगता

 जब तक ख़ुशी के आईने में खुद को अकेला मांगोगे

 मिलेंगी तन्हाईया ख़ुशी कभी ना पाओगे

 पोंछते हम रह गए गैरों के बहते नीर को 

अपनों ने जमकर रुलाया खुद हमारी आंख को 

सबको अपना मानकर बढ़ते रहे हम राह में

 रह  गए अंजान हरदम चल रही खामोशिओं से 

जब भी तोड़ा मौन आंखों से अगन सी झांकती 

अश्रुधारा भी नयन से साधती संवाद देखो

 सब खड़े हैं एक लय हो गैर या अपना कोई 

इस समर में मौन साधे रह गया वह धीर कोई 

जिंदगी को जिंदगी से जोड़कर जिसने जिया 

इस समर में वीर उस सा है नहीं कोई और .

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