तेरे जैसा यार कहाँ?

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कृष्ण,

राधे राधे कन्हैया। कैसे हो? हाँ, मुझे ज्ञात है कि "हाल न पूछो मोहन का, सब कुछ राधे राधे है!" परंतु अच्छा लगता है जब मेरे खत के उत्तर में तुम खत लिखते हो, और मेरे प्रश्न का उत्तर देते हुए विस्तार से अपना हाल सुनाते हो। अच्छा लगता है जब तुम लिखते हो कि तुम सकुशल हो, प्रसन्न हो, प्रेम में हो। अच्छा लगता है जब तुम बताते हो कि तुम वसंत के आने के लिए कितने उत्साहित हो। अच्छा लगता है जब तुम साझा करते हो अपने दुख और दर्द, अपनी उदासीनता, अपनी परेशानियाँ। तुमसे ये समझा है मैंने, कि सब कुछ राधे राधे होने का अर्थ यह नहीं होता कि परिस्थितियाँ सदैव मंगल रहेंगी, चंद्रमा सदैव पूर्ण रहेगा, ऋतु सदैव वसंत और चित्त सदैव प्रसन्न रहेगा। नहीं, परिस्थितियाँ कभी मंगल तो कभी अमंगल होती हैं। चंद्रमा पूर्ण रहता है, कुछ सीमित दिनों के लिए ही पूर्ण रहता है, फिर घटने लगता है और अमावस के अंधकार में कुछ सीमित दिनों के लिए लुप्त भी हो जाता है। जीवन में वसंत भी आता है, नई पत्तियां जन्म लेती हैं, फूल खिलते हैं और वृक्ष अलंकृत हो उठते हैं, परंतु कुछ समय पश्चात वही पत्तियां गिरकर धूल में समा जाती हैं, फूल अपनी नियति के अनुसार मुरझा जाते हैं और वही वृक्ष नग्न हो जाते हैं। चित्त कभी प्रसन्न तो कभी अशांत रहता है। परंतु चित्त जब अशांत हो पर आशाहीन नहीं, जब जीवन में पतझड़ विकराल हो पर यह याद रहे कि इस पतझड़ के बाद एक नया वसंत आएगा और खूब खिलकर आएगा, जब अमावस का अंधकार सिर पर हो पर उस अंधकार का भय न हो, जब ध्यान हो कि हम तो अपने आंचल में हज़ारों जुगनू समेटे हुए हैं - प्रेम के, कविताओं के, जीवन के जुगनू। जब अमंगल परिस्थितियों को स्वीकार करना आ जाए, वो परिस्थिति जितना विषाद अपने साथ लाई है उतने विषाद को ग्रहण करना आ जाए वैसे ही जैसे किसी मंगल परिस्थिति द्वारा लाए गए हर्ष का कण-कण उल्लासित होते हुए स्वीकार करते हैं, इसे कहते हैं सब कुछ राधे राधे होना। प्रेम में होना ही सब कुछ राधे राधे होना है।

खैर! आज यह खत मैं एक विशेष कारण से लिख रही हूँ। मैं पिछले दो दिनों से "अम्बे तू है जगदम्बे काली" गुनगुना रही हूँ, आज संध्या के समय भी वही गुनगुना रही थी, तभी मन में एक खयाल आया और मैं बैठ गई तुम्हें खत लिखने।

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