बचपन से सिखाया, "बेटी, संस्कार निभाना,"
घर की चार दीवारों में अपना संसार बसाना।
पर क्यों है ये समाज, जो उड़ने नहीं देता,
क्यों हर कदम पे डर का साया पीछा करता?रातों में सड़कों पे चलना, मानो गुनाह किया,
क्यों हर नज़र में सवाल, क्यों हर बात में सज़ा?
क्या मेरी हंसी का हक़ भी किसी और का हुआ,
क्यों हर कदम पे पूछती हूँ, "क्या मैं सुरक्षित हूँ?"पढ़ने की चाह है, सपने मेरे भी हैं,
पर हर रोज़ सुनती हूँ, "बस घर की ज़िम्मेदारी है तेरे हिस्से में।"
क्या आज़ादी सिर्फ़ एक सपना है, जो हर सुबह टूट जाता है,
क्यों इस समाज में मेरी पहचान छोटा नाम रह जाता है?पर अब ये चुप्पी टूटेगी, आवाज़ उठानी होगी,
हर बेटी की कहानी अब ख़ुद को सुनानी होगी।
क्यूंकि जब तक ये समाज बदलेगा नहीं,
तब तक हर लड़की का सपना अधूरा ही रहेगा सही।हम नहीं डरेंगे, नहीं झुकेंगे,
अपने हक़ की लड़ाई अब हम ख़ुद लड़ेंगे।