मनुज

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मन में फैला रजनी का तिमीर,
मनुज का कहीं अंताःकरण बेसुध होगया
मनुज आपस में विघटन कर खंडित होगया

अब नहीं रहा अवलंब मनुज मनुज का
मृषा दंभ वैरी बन गया मनुज का

आगे बढ़ने की तृष्ना में,
मनुज ने मनुज को दबाया है
ईस्वर से अब भय नहीं,
दुसरे के घर आग देख उसके मुख पे हंसी छाया है

कब तक मृषा दंभ मे जियेगा मनुज ?
चारो ओर फैला रूधीर ही रूधीर होगा
चारो ओर अग्नि की ज्वाला फैली होगी
हर ओर धुँआ ही धुँआ होगा

मन में फैले रजनी के तिमीर को,
प्राताःकाल के प्रभात से मिटाना होगा
कहीं बेसुध अंताःकरण को ढ़ुड कर लाना होगा

--सोनु झा

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