त्याग धरा का

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तू प्रबल ज्ञान की गंगा में जब बहकर मुझसे यह बोले
की मैं धरा की क्षीर नदी की धारा बनकर बह जाऊं
दूँ उड़ेल हरबार स्वयं को, त्याग की देवी बन जाऊं
लाज शर्म में जी जीकर घुट घुट यूँ ही मर जाऊं
इस समाज की कायरता पर हर बार मैं फांसी चढ़ जाऊं
तब तुझे हिमालय से बांध मैं क्यों न जग को दिखलाऊँ
इस धरा में त्याग प्रेम के लिए लहू सबका न्यारा है
की मटमैली सी तेरे दिमाग के प्रबल ज्ञान की धारा है
यह सोच इस समाज के मद की मधुशाला है
स्त्री त्याग की मूरत नही जीती जागती एक बाला है।

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