आपको याद होगा, हमारी बचपन की हिंदी पाठ्यपुस्तकों में प्रस्तावना होती थी और फिर प्राक्कथन होता था. मुझे ये दोनों स्तम्भ बड़े पसंद थे. लगता था कि लेखक आपको अपने लिखे से मिलाने से पहले कुछ कहना चाहता है - कोई ख़ास बात जिसको जानकर आप उसकी किताब को और अच्छे से समझ पाएंगे.
कई बार तो मैं किताब को पढ़ने से पहले कई बार शुरू में दिया गांधीजी का जंतर और फिर प्रस्तावना बार बार पढ़ा करता था. किताब को उलट पलट कर देखा करता था - मानो पहले भलीभांति सूंघ कर, परख कर किताब से पहचान हो जाए और तभी किताब को पढ़ा जा सके.
आजकल अंग्रेजी नॉवेलों के अंत में आफ्टरवर्ड नामक स्तम्भ होता है. मैं उसे और शुरू के कुछ पन्नों को आज भी पहले पढ़ता हूँ. क्या आप भी ऐसा करते हैं? कमेंट्स में बताइयेगा.
एक बात और भी थी कि पहले के ज़माने में लेखक के और प्रकाशक के कई सारे मुद्रण और वर्तनी सम्बन्धी अपराध क्षम्य होते थे. पाठक स्वयं हर तथ्य को लेकर अपने दिमाग में श्योर होता था और उसे किसी हलकी गलती पर गुस्सा नहीं आता था. आजकल हम पढ़ने का मज़ा भूलकर उसे एक टास्क की तरह करते हैं.
तो मैं सिर्फ यही कहना चाहता हूँ, कि ई बुक हो या बुक स्टाल पर मिलने वाला उपन्यास, पत्रिका, आदि, बिना ज्यादा गूगल किये उठाइए और किसी की कम - ज्यादा, आधी- पक्की मेहनत का लुत्फ़ लीजिये.
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बुंदेलखंड बवाल
Humorबुंदेलखंड भारत का वह हिस्सा है जहाँ डार्क ह्यूमर स्वतः परस्पर पैदा होता रहता है. यह कहानी है इस प्रान्त में इसी प्रकार स्वतः उपजी कुछ बेवकूफियों की और कुछ समझदारियों की.