प्राक्कथन

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तो ये है हमारा प्राक्कथन यानि किताब शुरू होने से पहले का कथन. बहुत समय से मुझे बुंदेलखंड पर एक व्यंग्य लिखने का मन था. मैं यह कहानी लिखते जा रहा हूँ और साथ ही साथ बनाते जा रहा हूँ. इसके किरदारों को मैं जानता हूँ क्योंकि मैं खुद बुंदेलखंड में रहता हूँ. पर क्या मैं इसकी कहानी को जानता हूँ? उसका जवाब इस स्तम्भ को लिखते समय तो यही है कि नहीं, मैं अभी कुछ भी नहीं जानता कि यह कहानी क्या और कैसी होने वाली है.

इस कहानी को शुरू करने से पहले की मेरी प्रेरणा यही है कि मैंने बुंदेलखंड के अपने जीवन में कई ऐसे लोग देखे हैं जो हमारे वैश्विक समाज और भारतीय समाज का आईना हैं. यह क्षेत्र ठेठ देहाती भी है पर अगर पैनी नज़र से देखें तो जैसा की सब जगह होता है, यहाँ ग्लोबल समस्याओं के सभी प्रतिबिम्ब हैं. 

इस क्षेत्र में शिक्षा और जागरूकता की भारी कमी है, लोगों में समाज के प्रति दायित्व जैसी कोई भावना नहीं दिखती पर यहाँ का समाज ऐसी मानसिकता को अन्दर से अपना चुका है. आप यदि ऐसी जड़वत सोसाइटी को तोड़ने जाएँगे तो खुद ही चटक जाएँगे. माहौल बदलने के लिए सबसे तीखा और प्रभावी तरीका कलम का ही है. अब मुझे यह नहीं पता कि मेरी यह कलम वाटपैड के एक छोटे से कोने से कितनी दूर पहुंचेगी पर आसमान में छेद हो या ना हो, हमारा काम है पत्थर उछालना और वो हम उछालेंगे.

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