यूंही नहीं, भीड़ का हिस्सा बना!
ये शौक नहीं, मजबूरी थी।
जीवन, जीने की लाचारी।।
जीने को दो जून की रोटी भी काफी थी,
मगर खेत बंजर थी और कनस्तरें खाली।ऐसा लगता "अन्नदाता", कहते
लोग उपहास ही करते। जब
खाली पेट हमारे बच्चे सोया करते।।यूं पलायन को विवश हुआ मन,
परिस्थिति के आगे नतमस्तक हुआ जन।
कभी गलियों, कभी कुंचो को छाना,
और इस तरह हमने शहर को जाना।इन शहरों की थी अलग परिपाटी,
ख़ुद को इंडियन बोले, हमें भारतवासी।
चकाचौंध भरी नगरों को दूर से देखता था,
मैं चमकते इंडिया के झोपड़ियों में रहता था।कई आशियाने सजाएं हमने शहरों में,
अब अपने घरौंदे उजड़ते देखता था।
दरबदर हो चूका, सपने बिखरते देखता था।और किस्मत को भी खुशियां कब रास आई,
मौसम की मार तो कभी महामारी की वार!
पैदल ही रास्ते नापने को मजबूर था,
मेरा गांव अब भी मीलों दूर था।यूंही नहीं, भीड़ का हिस्सा बना!
