।।उर्मिला का वनवास।।
जैसे चौदह साल पहले हुआ था,
वैसे ही उर्मिला फिर उद्विग्न है,
न भोजन गले उतरता है,
न ही नींद आ रही है.अयोध्या प्रकाश की नदी बनी है..
कहने वाले कहते हैं
कि सोने की लंका से भी अधिक दिव्य लग रही है आजकल
वैभवी.. विजयी.. कलावती..
स्वर्गलोक भी ईर्ष्या करे-
आज इतने रंग हैं, आज इतनी शांति है.. इतना सुख..
यह रात समयान्त तक दुहराई जायेगी
दीवाली सम्पूर्ण विश्व में मनाई जायेगी
उर्मिला अनायास व्यग्रता से
शैय्या पर लौट आती है.
इनके आने की ही तो प्रतीक्षा थी
अब यह व्याकुलता कैसी?अपलक देखती रहती है उन्हें
उकड़ूँ बैठी! सांस रोके!
और लक्ष्मण.. वे सोये रहते हैं.
बरसों की अनिद्रा के बाद भी
उनकी नींद कच्ची है.
युद्ध की विभीषिका के सपने होंगे
नींद में बार-बार चिलक उठते हैंउसे नहीं मालूम
कि थपथपाये,
पसीना पोछे,
या जगा कर पानी पिलायेवह कुछ नहीं करती है
उन्हें सिर्फ़ देखती रहती है
कभी-कभी उसे लगता है
कि अगर लक्ष्मण की नींद गहरी होती
तो शायद उसे बुरा लगता
कि देखो मेरे बिस्तर पर
कितने मज़े से सो रहे हैं* * *
राम ने क्यों भेजा था
शूर्पणखा को इनके पास?
‘मेरी तो पत्नी है,
वो! वो मेरा भाई है,
वह वीर, कामाकर्षक, रूपवान युवक
मेरा ही अनुज है..”
उपहास मर्यादा पुरुषोत्तम?
उपहास था?और तुम.. तुम नाथ..
इतनी अमानवीयता कहाँ से आयी
नाक और कान काटना?
वन-विपत्तियों ने इतनी निष्ठुरता भर दी..* * *
वन-वासियों के लौटने के पूर्व
सब ठीक था
एक बंधी दिनचर्या थी
ब्रह्ममुहूर्त में स्नान..
मांडवी और श्रुतकीर्ति
दिया बारे,
सरयू-जल का लोटा भरे
पहले ही तैयार होती थीं
शिवमंदिर जाते-जाते
कोई बात नहीं करती थीं..
कभी-कभी मेरी तरफ सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि डालतीं भी हों
तो मैं ध्यान महामृत्युंजय मंत्र में ही रखती थी
पर लौटने के बाद
उनकी चैं-चैं बंद होने का नाम ही नहीं लेती थी
दो-तीन पहर कैसे ठिठोली में बीत जाते
हम वही बचपन की बहनें बन जाती थीं
पता ही नहीं चलता था कब
संध्या का समय हो जाता था..क्या कल भी ऐसे ही होगा?
अब पार्थ आ गए हैं,
अब तो भरत, शत्रु भैया भी
निश्चल शांति से सोये होंगे
कल..* * *
माँ कैकयी का दर्द अधिक रहा
या मेरा
मेरे कक्ष में आ कर
पहरों बैठी रहती थीं गुमसुम
भरत ने तो लगभग बात ही करनी बंद कर दी थी उनसे
मांडवी भी सेवा करती रही
उससे हँस के बात करना नहीं हुआ
श्रुतकीर्ति, छोटी बहू होने की सहूलियत में
उनके सामने चुप ही रहीकौसल्या माता फिर कौसल्या माता हैं –
कैकयी माँ का
अपने बच्चे की तरह ध्यान रखा उन्होंने
वर्ना न जाने क्या अनर्थ घटना थासीता के पीछे मैं ही तो बड़ी बहू थी अब
वे मेरे कक्ष में नहीं आतीं तो कहाँ जातीं?
किस तरह हुआ – पता नहीं
कैकयी माँ के लिए कभी कोई उपालम्भ
मेरे मन में भी नहीं आया
उनकी संक्रामक चुप्पी
मुझे भी एक तरह का सम्बल,
एक शांति ही दे कर गयीआज क्या वे प्रसन्न होंगी?
यद्यपि राम भैया ने कहा तो था
क्या भरत भैया ने उन्हें
सचमुच अंदर से क्षमा कर दिया होगा?
जैसी एक विचित्र तरंग मेरे भीतर है
वैसा कुछ उनके अंदर भी होगा
पश्चाताप में मरना जितना सरल है,
जीना उतना ही कठिनमैं कल क्या करूंगी?
हम इतने बरसों के सूखे के बाद
तृप्त जीवन के आमंत्रण को संभालूंगी
या रोऊंगी, उलाहना दूँगी?
मैं कहाँ रोई?
आंसू कहीं तो अटके होंगे..
झूठ क्यों बोलूं
ख़ुशी के समुद्र भी तो
आँखों के रास्ते ही फूटेंगे
बाँध टूटेंगे तो सब धुल जाएगा?क्या सबकुछ इतना आसान होगा?
चौदह वर्ष की पीड़ा-अपीड़ा
ऐसे ही घुल-धुल जायेगी?तभी लक्ष्मण ने
अपने सपने में चौंक कर
करवट ली
उनके चेहरे की बाल-सुलभ कांति देख
उर्मिला के अंतर में ओस गिरने लगी
पक्षियों की चहचहाअट के गीत मुखर होने लगे थे
बहन-देवरानियां रोज़ की तरह उठ गयी होंगी
उर्मिला ने कुछ पल सोचा
फिर मन ही मन शिवजी से क्षमा मांग कर
पार्थ की बाहों में लेट गयी…It's a poem on Urmila's state when Lakshman ji returned after 14 years of exile.
I love this poem, so I share this poem to all of you.
Thanks ♥️♥️
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Urmila ka Vanvaas
Ficción históricaVanvaas of Devi Urmila A story of Princess Urmila's vanvaas with her husband Lakshman and jiji jija shree Siya-Ram. She was a lady of great sacrifices but remain always lost in golden pages of great epic Ramayana. This book fully based on periphery...