ये किस मोड़ पर रब्बा लाई है ज़िंदगी,
कि कर्ज सांसों का लेकर धड़क तो रहा है दिल, मगर जिंदा तो नहीं...
जाने क्यूं ये यकीं का ज़हर है घुला सांसों में अब तक,
कि जिसने वफ़ा नहीं निभाई, दिल कहता है वो बेवफा भी नहीं...जो काबिल नहीं मेरी बद्दुआओं के भी,
बड़ी शान से शामिल हैं अब तक इबादतों में दुआ बन कर,
कतरा कतरा पी रहा था जो नफ़रत के ज़ाम मैं उम्र भर,
खुदाया कही वो इश्क का ही नशा तो नहीं...अभी तो ठीक से टूटा भी नहीं तिलिस्म वो तेरे वादों का, कि फिर चली आई तुम ये अजनबियत का एहसास लेकर,
अब भी मगर रोशन से लगते है मेरे नाम के दिए तेरी आंखों में,
फरेबी ये तेरा कोई नया छलावा तो नहीं...वो पहली मासूम दोस्ती, वो पहली उल्फत की दीवानगी,
तुमसे ही शुरू, तुम पर ही खत्म मेरी होती थी ज़िंदगी,
अब जो पिघल रहा हूं अपने ही ख्वाबों के संग,
तो क्यों लकीरे ये है तेरी पेशानी पर,
सितमगर दिल तोड़ने की ये तेरी कोई नई अदा तो नहीं...मुहब्बतो में था तो जाया था, नफ़रतो में अब खुद से वाकिफ हूं मैं,
ज़िंदगी ने चाहे धोखे दिए, मौत के लिए भी अब ना फारिग हूं मैं,
काबिज़ हो अब भी मगर हक़ से नींदों पर मेरी तुम,
दिलबर मेरी जीने की कहीं ये तेरी सज़ा तो नहीं...