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[सुबह 9 बजे]

झिलमिलाती धूप में सुबह सुबह की हलचल को देखता एक आदमी चाय की चुस्की ले रहा था।

वह एक सड़क की एक ओर बनी चाय-नाश्ते की टपरी के पास खड़ा था। उसी सड़क की दूसरी ओर एक आलिशान कॅफे था। वह आदमी चाय की एक चुस्की लेता, और कॅफे के अंदर देखता। फिर दूसरी चुस्की लेता और सड़क पर मौजूद बाकी सभी इंसानों को अपनी आम ज़िंदगी में आगे बढ़ते हुए देखता।

"साहब? उहाँ कौनहू मनोहरी चीज़ है का?" चाय वाले ने पास खड़े निसार से पूछा।

निसार रोज वहाँ दिन की दो कप चाय पीता था। अब उसकी चाय वाले से अच्छी जान-पहचान हो चुकी थी। अक्सर वे दोनों यहाँ वहाँ की बातें किया कर लेते थे।

"नहीं। बस कुछ यादें हैं जो भूल नहीं पा रहा हूँ।" निसार ने बिना चाय वाले की ओर देखे, अपनी ही धुन में, धीरे से बड़बड़ा दिया।

"जी?" चाय वाले ने कुछ साफ सुनाई ना देने पर पूछा।

"Hmm?" निसार ने अपना ध्यान चाय वाले की ओर किया। "नहीं, कुछ नहीं। बस ऐसे ही कभी कभी नज़र चली जाती है वहाँ।"

"अच्छा। वैसे सुंदर तो है वो कफ़... कफे? कफ़े। मगर हम तो भैया इहाँ इस नन्ही सी टपरी मां ही अपनी खुशी समाए रखत हैं। जितने ग्राहक आवत हैं, सभी खुश होकर जावत हैं।" चाय वाले ने उबल रही चाय को हिलाते हुए एक बड़ी सी मुस्कुराहट के साथ कहा।

"हैना? अच्छी बात है। ऐसे ही रहा करो।" निसार ने जवाब दिया और दस रुपये का सिक्का अपनी जेब से निकाला। "अच्छा अब ये लो, तुम्हारे चाय के पैसे।"

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