भक्ति।

1 1 0
                                    

भक्ति जो ये तेरी है ना ,
मंदिरों में चढ़ावे सी,
दान की पेटियों में चुप सी रह जाती है ,
भीड़ इतनी की देवता ये तेरे ,
घूट से जाते है चार दिवारी में ।

शहरो में दबी सी आशा की भीड़ है,
बंद छोटे कमरों में होता है व्यापार ,
और देवी के मन को प्यारी लगने वाली,
लाल चुनरियों के है दाम हजार ,
यहां आस्था नहीं ,
हैसियत दिखी जाति है ।

कभी नीम के नीचे ,
मंदिर के पीछे ,
नदी के किनारे बैठे से ,
कृष्णा के भजन में ,
छोटे से उपवन में ,
धीमी सी मुस्कान लिए बैठे है तेरे देव ,
तु रुक तो सही , जरा थम तो कही ,
सुन ले वो मीठी सी धुन ,
तेरे देव मंदिरों की चार दिवारी से बाहर ,
किलकारियों में है बसे  ।

भक्ति जो तेरी है ना ,
फूलो की माले सी ,
प्रसाद के फल जैसी ,
मैले आंगन में तेज कदमों सी ,
पुजारियों के मंतर जैसी,
जो न रुकती है बंजारो की मीठी ध्वनि पर,
न थामते है तेरे कदम भीड़ में तेरे देव पर,
एक झलक पाने को तू कतारों में जूझता है,
मंशाओं का दीप लेकर हर बार पहुंचता है ,
ये भक्ति जो रुपए और सोने से तोली जाति है ,
जो न कभी किसी रस्मों पे सवाल कर पाती है ,
झूठी सी है ।
-ss

Unsaid Where stories live. Discover now